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प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है अतः ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता । पुनःआतुरप्रत्याख्यान,महाप्रत्याख्यान,मरणसमाधि
आदि प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवती आराधना भी छठवीं शती से परवर्ती नहीं है। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई. सन् की चौथी-पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं माना जा सकता । यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ प्रकीर्णक नवीं-दसवी शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ विद्वानों ने आर्य रक्षित के समय का माना है । अतः वह ई. सन् की प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्षि से पूर्ववर्ती हैं अतः उनका काल भी पाँचवीं शताब्दी से परवर्ती नहीं हो सकता। ___इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं । यह तो एक सामान्य चर्चा हुई किन्तु अभी इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है कि जैन विद्वानों की भावी पीढ़ी इस दिशा में कार्य करेगी। • आगमों की वाचनाएँ ..
यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बरमान्य अर्धमागधी आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वल्लभी वाचना में वि.नि. संवत् ९८० या ९९३ में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगों की वाचनाएँ तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
प्रथम वाचना- प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई । परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यप्रदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशतः विस्मृत एवं विश्रृंखलित हो गया है
और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है । अतः उस युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्र होकर आगमज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था । अतः ग्यारह अंग तो व्यवस्थित किये गये हैं किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित-साहित्य को व्यवस्थित नहीं किया जा सका क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलिभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया । स्थूलिभद्र भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये।
इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अंगों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया किन्तु एकादश अंग ही सुव्यवस्थित किये जा सके । दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्मुक्त पूर्व
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