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किये जाते थे। धनिकों की अन्त्येष्टि क्रिया बड़ी सजधज के साथ संपन्न होती थी। प्रतिमास मृतक के लिए दिये जाने वाले भोज को हिंगोल अथवा करडुय भत्त कहा जाता था। मृतक का वार्षिक दिवस मनाया जाता था और उस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था।
आयुर्वेद-वैसे तो जैन आगम ग्रंथ मूलत: आध्यात्मिक ग्रंथ हैं । इन ग्रंथों में प्रसंगानुसार धर्म और दर्शन के साथ ही अन्य विषयों का विवरण भी मिलता है। जैनागमों में आयुर्वेद विषयक उल्लेख भी उपलब्ध है। जैनागमय साहित्य के अनुशीलन से इस विषयक जो जानकारी मिलती है, उसका विवरण इस प्रकार हैं____ चिकित्सा के अंग- स्थानांग' सूत्र के अनुसार चिकित्सा के चार अंग हैं। यथा- (१) वैद्य, (२) औषध, (३) रोगी और, (४) परिचारक अथवा परिचर्या करने वाला।
व्याधि उत्पत्ति के कारण-व्याधियां उत्पन्न होने के चार कारण बताये गए हैं, यथा
(१) वातिक– वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि । (२) पैत्तिक– पित्त के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि । (३) श्लैष्मिक-कफ के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि ।
(४) सान्निपातिक-वात, पित्त और कफ के सम्मिलित विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि ।२
- सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य के अनशीलन करने के पश्चात् रोगोत्पत्ति के नौ कारण ज्ञात होते हैं । यथा- (१) अतिआहार (२) अहिताशन, (३) अति निद्रा, (४) अति जागरण, (५) मूत्रावरोध, (६) मलावरोध, (७) अध्वगमन, (८) प्रतिकूल भोजन और (९) काम विकार। .
यदि मनुष्य इन नौ कारणों से बचता रहे तो रोग उत्पन्न होने का भय नहीं रहता
चिकित्सक- चार प्रकार के वैद्य या चिकित्सकों की जानकारी मिलती है। जैसे___ (१) आत्मचिकित्सक, न परिचिकित्सक- कोई वैद्य अपनी चिकित्सा करता है, दूसरे की चिकित्सा नहीं करता।
१. स्थानांग सूत्र, ४/४/५१६ २. वही, ४/४/५१५
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