Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 302
________________ लाख को अग्नि में डालने से वह फौरन जल उठती है, उसी प्रकार साध स्त्रियों के सहवास से नष्ट हो जाता है । स्त्री को विषकंटक की उपमा दी गई है । सुन्दर स्त्री से ही नहीं, लंगड़ी, लूली, नकटी, बूची स्त्री तक से भी दूर रहने का उपदेश दिया है । स्त्री का उपसर्ग न सह सकने की स्थिति में प्राणों का भी त्याग कर देने का विधान है। इसका कारण यह है कि तत्कालीन स्थिति में अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन आसान काम नहीं था । भिक्षावृत्ति के समय उन्हें स्त्रियों के संपर्क में आना पड़ता था। उस समय वे उपदेश भी देते थे। लेकिन ऐसा मौका देखकर कोई-कोई विरहणि स्त्री उनके आगे अपनी कुवासना की इच्छा भी व्यक्त करती थी। इसके सिवाय वेश्याजन्य उपद्रवों का भी उन्हें सामना करना पड़ता था । कभी-कभी रात के समय वेश्या वसतिका में आकर साधुओं के साथ रहने का आग्रह करती थी और उन्हें हर तरह से आकर्षित करती थी। ऐसी अनेक गणिकाओं के उदाहरण हैं, जिन्होंने मुनियों को चारित्र से भ्रष्ट किया था। वाद-विवाद जन्य संकट भी एक उपसर्ग जैसा था। धर्म प्रचार करने के लिए निग्रंथ श्रमणों को अन्य तीर्थिकों के साथ वाद-विवाद से जूझना पड़ता था। खासकर ब्राह्मणों के साथ वाद-विवाद हुआ करते थे। जो सरल हृदय होते थे, वे तो उनके शिष्य बन जाते थे, लेकिन अभिमानी अवसर मिलने पर प्राण वध करने से भी नहीं चूकते थे। इसी प्रकार के और अनेक छोटे-मोटे उपसर्गों व संकटों का सामना निग्रंथ श्रमणों को करना पड़ता था, जिनसे घबराकर अथवा प्रलोभित होकर साधना से पतित हो जाना संभव है । इसी स्थिति को ध्यान में रककर आगमों में साधु को अपने धर्म और व्रत नियम का तत्परता से पालन करने का उपदेश दिया गया है। . * जनसामान्य के श्रद्धा केंद्र __यद्यपि निग्रंथ श्रमणों को अनेक उपसर्ग और संकटों का सामना करना पड़ता था और विदेशियों से प्रताड़ना की आशंका भी बनी रहती थी, फिर भी आध्यात्मिक जीवन का निर्माण करना उनका एकमात्र लक्ष्य होने से सामान्यजन से लेकर बड़े-बड़े राजा महाराजा तक सब उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते थे और उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । उद्यानों में उनके दर्शन के लिए जाते थे, उनसे जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करते थे और उन्हें आहार, आवास, आसन आदि आवश्यक वस्तुएँ हर्षित मन से प्रदान करते थे। यदि कहीं उनके साक्षात् दर्शन हो जाते और उनकी पर्युपासना करने का अवसर मिल जाता तो उनके आनन्द की सीमा न रहती। ऐसे महापुरुषों के नाम गोत्र का श्रवण भी अहोभाग्य समझा जाता था। (२२७)

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