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परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक परंपरा ने अपने-अपने श्रमणों के परिचय के लिए नए-नए विशेषणों की संयोजना की। इन सब परंपराओं में सक्क (शाक्य बौद्ध), तापस (वमवासी), गेरुय (परिवाज्र) और आजीवक ये चार मुख्य हैं। * शाक्य श्रमण
आगमों में शाक्य श्रमणों को रत्तवड़ (रक्त पट) अथवा वच्चनियं(क्षणिकवादी) नाम से उल्लिखित किया गया है । सूत्रकृतांग में उनके पंचस्कंध के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है । अनुयोग द्वार और नंदीसूत्र में बुद्ध शासन को लौकिक श्रुत में गिना है। आर्द्रक मुनि और शाक्य पुत्रों के वाद-विवाद का सूत्रकृतांग में उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि निग्रंथों और शाक्य श्रमणों के बीच शास्त्रार्थ होते ही रहते थे।
वनवासी साधुओं के लिए तापस शब्द का उपयोग किया गया है । तापस श्रमण वनों में आश्रम बनाकर रहते थे। वे यज्ञ याग करते, शरीर को कष्ट देने के लिए पंचाग्नि तप तपते तथा अपने सूत्रों का अध्ययन करते थे। उनका अधिकांश समय कन्दमूल, फल-फूल आदि बटोरने में ही बीतता था। ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते थे। यह तापस परंपरा बहुत प्राचीन है। भगवान महावीर से भी पूर्व भगवान पार्श्वनाथ के समय में भी तापस श्रमण थे। यह बात कमठ तापस की घटना से ज्ञात होती है।
तापस आश्रमों के उल्लेख भी आगमों में मिलते हैं। भगवान महावीर अपनी विहारचर्या के समय मोराक सन्निवेश में दुरइज्जन्त तापस के आश्रम में ठहरे थे । उत्तर वाचाल में स्थित कनकखल आश्रम में पाँच सौ तापस रहा करते थे। पोतनपुर में भी तापसों का एक आश्रम था।
औपपातिक सूत्र में निम्नलिखित वानप्रस्थ तापस गिनाए हैंहोत्तिय-अग्निहोत्र करने वाले। पोत्तिय-वस्त्रधारी। कोत्ति-भूमि पर सोने वाले। जण्णई-यज्ञ करने वाले। सडई-श्रद्धाशील। थालई-सब सामान साथ लेकर चलने वाले। दन्तुक्खलिय-दाँतों से चबाकर खाने वाले । उम्मज्जक-उन्मज्ज मात्र से स्नान करने वाले। सम्मज्जक- अनेक बार उन्मज्ज करके स्नान करने वाले।
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