Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 314
________________ और विनयवादी । क्रियावादी का अर्थ है-क्रिया की प्रधानता स्वीकार करने वाला मत । आचार्य शीलांक ने क्रियावाद का अर्थ बताते हुए कहा है कि जो सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्र के बिना केवल क्रिया से मोक्ष मानते हैं, वे क्रियावादी हैं । क्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और ज्ञान के बिना क्रिया को मुख्यता देते हैं। क्रियावाद के १८० भेद माने गए हैं । अक्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । उनके मतानुसार प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी है, जिससे उस स्थिति में क्रिया नहीं हो सकती । क्षणिकवाद को मानने से इन्हें बौद्ध भी कहा गया है। अक्रियावादियों को विरुद्धवादी भी कहा गया है, क्योंकि इनकी मान्यताएँ अन्य वादियों के विरुद्ध पड़ती है । इनके चौरासी भेद हैं । अज्ञानवादी मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान को निष्फल मानते हैं। इनके ६३ भेदों का उल्लेख मिलता है । विनयवादियों ने बाह्य क्रियाओं के स्थान पर मोक्ष की प्राप्ति के लिए विनय को आवश्यक माना है । अतएव विनयवादी सुर, राजा, यति, हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, बकरी, गीदड़, कौआ और बगुले आदि को देखकर उन्हें प्रणाम करते हैं । विनयवादियों का दूसरा नाम अविरुद्धवादी भी है । इनके बत्तीस भेद हैं। विनयवादियों के अनुयायी अनेक तपस्वियों के नाम आगम साहित्य में उपलब्ध होते हैं। : इस प्रकार आगम साहित्य में तत्कालीन धार्मिक व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध होता है। . १. क्रियावाद १८० भेद- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप को काल, ईश्वर आत्मा, नियति और स्वभाव की अपेक्षा से स्वतः, परतः तथा नित्य और नित्य रूप में स्वीकार करने से ९ x ५ x २ x २ = १८० भेद होते हैं। -सूत्रकृतांग नियुक्ति २. अक्रियावाद के ८४ भेद-क्रियावाद के वर्गीकरण में से पुण्य और पाप को कम करके शेष जीवादि मोक्ष पर्यन्त को काल, ईश्वर आत्मा, नियति, स्वभाव और यदृच्छा की अपेक्षा से स्वतः और परतः रूपी में स्वीकार करने से ७x ६ x २ = ८४ भेद होते हैं। -सूत्रकृतांग टीका ३. अज्ञानवाद के ६३ भेद- जीवादि पाप पर्यन्त को सत् असत्, सदसत्, अव्यक्त, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य और सदसदवक्तव्य की अपेक्षा से स्वीकार करने से ९ x ७ = ६३ भेद होते हैं । ४. विनयवाद के ३२ भेद - देवता, स्वामी, यति, पुरुष, वृद्ध पुरुष, अपने से छोटे, माता और पिता को मन, वचन, काय और दान द्वारा सम्मानित करने के कारण इनके ८ x ४ = ३३ भेद होते हैं। - सूत्रकृतांग टीका (२३९)

Loading...

Page Navigation
1 ... 312 313 314 315 316