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कविल- कपिल को मानने वाले। भिउच्च-भृगु ऋषि के अनुयायी।
हंस- जो पर्वत, गुहा, पथ, आश्रम, देवकुल या आराम (बगीचा) में रहते हो तथा भिक्षा के लिए गाँव में पर्यटन करते हो।
परमहंस- जो नदी तट और प्रदेश में रहते हो तथा चीर, कौपीन और कुश को त्यागकर प्राणत्याग करते हों।
बहूरग- जो गाँव में एक रात और नगर में पाँच रात रहते हो।
कुडिव्वय- जो घर में रहते हो तथा क्रोध, लोभ और मोहरहित होकर अहंकार का त्याग करने के लिए प्रयत्नशील रहते हो।
कण्ह परिव्वायग- कृष्ण परिव्राजक अथवा नारायण के भक्त ।
इनके पश्चात् कंडु, करकंडु, अंबड़, पाराशर, कृष्णद्वैपायन, देवगुप्त और नासद आदि की ब्राह्मण परिव्राजकों और सेलई, ससिहार, णग्गइ (नग्नजित) भग्गइ, विदेह, रायाराय, रायाराम और बल आदि की क्षत्रिय परिव्राजकों में गणना की गई है। .
___ अन्य भी अनेक परिव्राजकों के नाम आगमों में आए हैं। जैसे-कात्यायन गोत्रीय आर्य स्कंदक, शुक परिव्राजक, अंबड़ परिव्राजक, पुद्गल परिव्राजक आदि । परिव्राजकों की भाँति परिव्राजिकाएँ भी श्रमण धर्म में दीक्षित होती थी । चोक्खा परिव्राजिका का नाम आगमों में उल्लिखित है । वह अन्य परिव्राजकाओं के साथ मिथिला नगरी में परिभ्रमण किया करती थी। परिव्राजिकाएँ विद्या, मंत्र और जड़ी-बूटियाँ देती थीं तथा जन्तर-मन्तर करती थीं। * आजीवक श्रमण
• गोशालक इस परंपरा का प्रमुख था । उसका भगवान महावीर के जीवन वृत्त में अनेक बार उल्लेख आया है, लेकिन आजीवक मत गोशालक के पहले भी विद्यमान था। गोशालक तो इस मत का तीसरा तीर्थंकर था । भगवती के अनुसार आजीवक मत गोशालक से ११७ वर्ष पूर्व मौजूद था। गोशालक आठ महानिमित्तों का ज्ञाता था। आगमों में गोशालक को नियतिवादी के रूप में चित्रित किया गया है और बताया गया है कि वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम को स्वीकार करता था। इस मत के अनुयायी श्रमण उग्र तप, घोर तप, घृतादि रस परित्याग और जिहेंद्रिय प्रति संलीनता नामक चार कठोर तपों का आचरण करते थे। ये जीव हिंसा से विरक्त रहते थे तथा मद्य, मांस, कंद मूल आदि तथा उद्दिष्ट भोजन के त्यागी होते थे। अन्योग द्वार सूत्र में आजीवक साधुओं के कुछ नामों का उल्लेख इस प्रकार है
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