Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 303
________________ इतना ही क्यों, संदेशवाहकों और वार्ता निवेदकों को इन महापुरुषों के आगमन की जानकारी मिलने पर वे सूचना देने के लिए तत्काल राजसभा में पहुँच जाते थे और राजा को संदेश पहुँचाते थे । राजा को संदेश देना वे अपना आवश्यक और अनिवार्य कर्तव्य समझते थे। राजा भी इस शुभ संवाद को सुनकर हर्षित मना हो सर्व प्रथम तो परोक्ष में सम्मान वंदना करते और संदेशवाहक को पारितोषिक देते। फिर प्रजाजनों को दर्शनार्थ चलने की घोषणा प्रसारित करवाते । स्वयं भी सपरिवार, अमात्य, सामन्त, सेना आदि से सुसज्जित हो वहाँ पहुँच जाते, जहाँ जिन, निग्रंथ, श्रमण आदि विराजमान होते थे। वहाँ उन्हें प्रदक्षिणा देकर वन्दनापूर्वक बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे। इस विषय से संबंधित अनेक दृश्य आगमों में यथास्थान अंकित है। वे लोग धर्मोपदेश श्रवण मात्र परंपरा का निर्वाह करने के लिए अथवा लोकप्रसिद्धि की आकांक्षा से नहीं, अपितु उसे जीवन का अंग बनाने के लिए और तदनुरूप प्रवृत्ति के लिए करते थे। श्रोताओं में से अनेक स्त्री, पुरुष, राजा, राजकुमार, रानी, राजकन्याएँ आदि श्रमण दीक्षा अंगीकार करने के लिए तत्पर हो जाते थे। वे सब सांसारिक विषय भोगों को तुच्छ समझकर धन-धान्य और कुटुम्ब परिवार का त्याग कर देते थे । जीवन को जल, बुबुद एवं ओस कण के समान क्षण भंगुर समझकर दुनिया की तड़क-भड़क एवं शान-शौकत की जगह अनगार श्रमणों की साधना को स्वीकार कर लेते थे। * प्रव्रज्या के लिए अभिभावकों की अनुज्ञा आवश्यक जो व्यक्ति संसार का त्याग कर साधु-साध्वी का जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखते थे, उन्हें बिना किसी जाति-पाँतिगत भेदभाव के निग्रंथ प्रव्रज्या अंगीकार करने की स्वतंत्रता थी। लेकिन प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए माता-पिता अथवा अभिभावकों की अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक था। बिना उनकी आज्ञा के प्रव्रज्या देना वर्जित था। जैसे कि द्रौपदी की अनुज्ञा मिलने के पश्चात् ही पाण्डव दीक्षा ग्रहण कर सके। और तो क्या? भगवान महावीर को जब तक उनके गुरुजनों एवं ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा नहीं मिली, तब तक वे गृहवास में रहे । मेघमार, प्रवजित होने के लिए जब भगवान महावीर के समक्ष उपस्थित हुए, तब उनके माता-पिता ने शिष्य भिक्षा दी। * निष्क्रमण समारोह __ प्रव्रज्या के लिए अग्रसर का निष्क्रमण-सत्कार समारोह बड़े ही भव्य आयोजनों के साथ मनाया जाता था। इस पुनीत अवसर पर लोगों में अत्यंत उत्साह दिखाई देता था। साधारण प्रजाजन ही नहीं, राजा-महाराजा भी इसमें सोत्साह सक्रिय रूप से (२२८)

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