Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 299
________________ है, शरीर, इन्द्रिय और आत्मदमन की दृष्टि में है। निर्ग्रन्थ तपस्या का क्या रूप होता है, इसके लिए मेघ मनि और धन्ना अणगार ये दो उदाहरण हैं । ज्ञाता धर्म कथा में मेघ मुंनि की तपस्या का वर्णन करते हुए बताया है कि जब अणगार तपने लगे, तब उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया, उसमें माँस और रक्त का नाम भी न रहा । इसलिए ज़ब वे चलते या उठते-बैठते, तो उनकी हड्डियाँ खड़-खड़ बज उठती थीं । बड़ी कठिनाई से वे चल पाते थे और कुछ बोलते या बोलने का प्रयत्न करते तो उन्हें चक्कर आ जाता था। जिस प्रकार अंगार, काष्ठ, पत्र, तिल और एरंड की गाड़ी सूर्य की गर्मी से सूख जाने पर कड़-कड़ आवाज करती है, उसी प्रकार धन्ना अणगार के अस्थिचर्मावशेष शरीर में से आवाज सुनाई देती थी। * निग्रंथ श्रमण का वेश निग्रंथ श्रमण दो प्रकार के होते हैं जिनकल्पी और स्थविर कल्पी । जिनकल्पी पाणिपात्र भोजी और प्रतिग्रहधारी के भेद से दो प्रकार के होते हैं-कुछ पाणिपात्र भोजी ऐसे होते हैं, जो वस्त्र नहीं रखते, केवल रजोहरण और मुखवस्त्रिका ही रखते हैं और कुछ ऐसे होते हैं, जो रजोहरण और मुख वास्त्रिका के साथ एक, दो अथवा तीन वस्त्र (कप्प-कल्प) धारण करते हैं । जो प्रतिग्रहधारी होते हैं, यदि वे वस्त्र धारण नहीं करते तो निम्नलिखित बारह उपकरण रखते हैं—पात्र, पात्रबंध, पात्रस्थापना, पात्र केसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, तीन प्राच्छादक (वस्त्र), रजोहरण और मुखवस्त्रिका। इनमें मात्रक और चोलपट्ट मिला देने से स्थविर कल्पी के चौदह उपकरण हो जाते हैं। भगवान महावीर के समय में और उनके बाद सुधर्मास्वामी के समय तक निग्रंथ श्रमण के वेश के बारे में संगति थी। उस समय सचेलक और अचेलक दोनों प्रकार के श्रमण समान रूप से सम्मानीय थे। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में अचेलक अर्थात् वस्त्र रहित साधु-भिक्षु के विषय में तो उल्लेख है, किन्तु पाणिपात्री भिक्ष के संबंध में कोई स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में वस्त्रधारी भिक्षुओं के विषय में विशेष विवेचन आता है । उसमें सर्वथा अचेलक भिक्षु के संबंध में स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं मिलता । इसी प्रकार अन्य आगमों में भी अचेलकता और सचेलकता का सापेक्ष वर्णन मिलता है । इसी के साथ वहाँ यह भी संकेत है कि अचेलक एवं सचेलक दोनों प्रकार के साधक श्रमणों में अमुक प्रकार का श्रमण अपने को अधिक उत्कृष्ट समझे और दूसरे को अपकृष्ट समझे तो यह ठीक नहीं है । इन्हें एक दूसरे का अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये सभी जिन भगवान की आज्ञा का अनुसरण करने वाले हैं। इस प्रकार आगमों में श्रमण वेश के प्रति समभाव प्रकट किया गया है। (२२४)

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