Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 297
________________ मार्ग की सुरक्षा के लिए संकट के समय में अन्य किसी उपाय के न रहने पर उनका उपयोग कर लेना चाहिए, लेकिन संकट टलने पर उनका प्रायश्चित करके शुद्धिकरणपूर्वक पूर्ववत् मार्ग पर चलना चाहिए। * आगमगत निग्रंथ साधना के सिद्धांत ___-निग्रंथ साधना की यह मूल दृष्टि और कुंजी है–'पूर्व परिचित संयोगों का त्याग करके जो कहीं किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं रखता, उस वस्तु में स्नेह नहीं रखता और स्नेह करने वालों के प्रति भी स्नेह नहीं दिखाता, वह भिक्षु दोषों और प्रदोषों से मुक्त होता है। इसी दृष्टि के अनुसार आचारांग में निग्रंथों की चर्या का विस्तार से वर्णन किया गया है। उसके दोनों श्रुतस्कंधों में बताया है कि निग्रंथ साधना की भूमिका निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है और उसके बाद उसकी सुरक्षा के लिए करणीय वैध उपाय आदि है। प्रथम श्रुतस्कंध के शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में भूमिका निर्माण की दृष्टि से बताया है कि यह विश्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन छह निकायों से खचाखचा भरा हुआ है । अतः इनकी सुरक्षा के लिए आरंभ-समारंभ करना वर्जित है, क्योंकि जब तक आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना व्यापक और सबल नहीं बनेगी, तब तक निपॅथता की ओर नहीं बढ़ा जा सकेगा। जीवों के आरंभ समारंभ का कारण हैक्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय । अतः इन कषायों पर विजय प्राप्त करने पर निग्रंथ साधना में ओज आता है । वह सबल बनती है । अतः लोकविजय नामक दूसरे अध्ययन में इनके त्याग की आवश्यकता बतलाई है-वैषयिक साधनों की प्राप्ति-अप्राप्तिजन्य सुख-दुःख । जब तक बाह्य वस्तुओं की ओर ध्यान रहता है, तब तक निर्ग्रथता की ओर नहीं बढ़ा जा सकता । इसी बात का विचार तीसरे शीतोष्णीय अध्ययन में किया गया है। . इस प्रकार प्रथम तीन अध्ययनों में निग्रंथ साधना की भूमिका के निर्माण का वर्णन करने के बाद उसकी सुरक्षा के मूल उपाय को बताया है कि अहिंसा, संयम और तप का आचरण इस भावना के द्वारा साधना की सुरक्षा करनी चाहिए। इन्हें जितना व्यवहार में लाया जाएगा और इनके आशय के अनुकूल प्रवृत्ति की जाएगी, उतनी ही साधना सबल बनेगी। इसके परिणाम स्वरूप उस आत्मा के दर्शन होंगे, जो शब्दातीत है एवं बुद्धि व तर्क से अगम्य है । इन दोनों बातों को क्रमशः चतुर्थ सम्यक्त्व और पंचम लोकसार नामक अध्ययनों में बताया गया है। शुद्ध आत्मतत्व को जान लेने, समझ लेने और उसकी प्राप्ति हो जाने के बाद भी कुछ न कुछ स्वजन, उपकरण, वैभव, (२२२)

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316