Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 296
________________ अध्याय १२ आगम साहित्य में धार्मिक व्यवस्था का रूप * धर्म की बहुलक्षी व्याख्या ___ सामान्यत: धर्म शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक विकासोन्मुखी आचार के लिए किया जाता है और सर्वसाधारण में इसी भाव को व्यक्त करने के लिए धर्म शब्द का प्रयोग भी किया जाता है, लेकिन जैन आगमों में सिर्फ आध्यात्मिक विकास के लिए किए जाने वाले तप-त्याग-व्रत-विधानों को ही नहीं, अपितु देश, समाज, नगर, ग्राम, कुल, परिवार आदि के प्रति दायित्वों को निभाना भी धर्म माना गया है । धर्म का संबंध सिर्फ व्यक्तिगत आचार से ही नहीं है, अपितु समष्टि की सुख-सुविधा और व्यवस्था से भी है । इस दृष्टि में धर्म की अनेक रूपों में व्याख्या की जा सकती है, लेकिन स्थूल रूप से आगमों में धर्म की दस प्रकार की व्याख्या की गई है । वह इस प्रकार है- ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, पाषंड धर्म, कुल धर्म, गण धर्म, संघ धर्म, श्रुत धर्म, चारित्र धर्म और अस्तिकाय धर्म। संक्षेप में विचार किया जाए, तो उक्त दस भेदों का राष्ट्र, समाज और धर्म इन तीन में समावेश हो सकता है, क्योंकि ग्राम और नगरों का समूह हो सकता है क्योंकि ग्राम और नगरों का समूह राष्ट्र है । कुल और गण समाज के अंग है और पाषंड से समाज की लौकिक मान्यताओं, रूढ़ियों और प्रथाओं का बोध होता है । संघ का संबंध समाज से भी है आध्यात्मिक धर्म साधना क्षेत्र की व्यवस्था से भी है । इस कारण यथा योग्य धर्म व समाज में उसका ग्रहण किया जा सकता है। आध्यात्मिक विकास अंगज्ञान और आचार है, अतः उनका बोध धर्म शब्द से कराया जाता है । आगम साहित्य में इन सभी के बारे में विचार देखने को मिलते हैं। उनमें से यहाँ धार्मिक व्यवस्था का विचार करते हैं। निग्रंथ साधना एवं निवृत्ति पोषक विचार जैन धर्म के केंद्र बिन्दु हैं, अतः आगमों में मुख्यतया इनसे संबंधित सिद्धांतों, आचार व्यवहार और उनके अनुरूप जीवन साधना अंगीकार करने वालों एवं उनकी विभिन्न श्रेणियों का वर्णन है । इसके अलावा प्रासंगिक रूप में समकालीन अन्य प्रचलित मत-मतान्तरों, परंपराओं और उनके अनुयायी साधकों आदि का भी उल्लेख है । उत्तरकालीन आगमिक व्याख्या साहित्य में अपनी सम सामयिक लोक व्यवस्था के कारण उत्पन्न परिस्थितियों में साधना की सुरक्षा के निमित्त अपवादों का भी उल्लेख है, जो इस बात का साक्षी है कि उत्सर्ग (२२१)

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