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इन्द्रनील, मरकत, सस्यक, प्रवाल, चन्द्रप्रभ, गोमेदय, सचक, भुजभोजक, जलकान्त और सूर्यकान्त के नाम उल्लेखनीय हैं । मणिकार मणि मुक्ता आदि में डंडे से छेद करने के लिए उसे सान पर घिसते थे।
स्त्रियों की प्रसाधन सामग्री में सुरमादानी (अंगनी) लोध्रचूर्ण, लोध्रपुष्प, गुटिका, कुष्ठ, तगर, खस के साथ कूट कर मिलाया हुआ अगस, मुँह पर मलने का तेल और होंठ रचाने का चूर्ण (नंदी चुण्ण) मुख्य हैं । इसके सिवाय सिर धोने के लिए
आँवलों (आमलग), माथे पर बिन्दी लगाने के लिए तिलक करणी, आँखों में आँजने के लिए सलाई (अंजन सलागा) तथा क्लिप (संडासग), कंघा (फणिह), रिबिन (सीहलियासग), शीशा (दर्पण, आदंसग), सुपारी (पूयफल) और तांबूल (तंबोलय) आदि का उपयोग किया जाता था।
तांबूल और सुपारी (प्यफल) खाने का रिवाज था। जायफल, सीतल चीनी (कक्कोल), कपूर, लौंग और सुपारी को पान में डाल कर खाते थे।
• लोग अपने पैरों को मसलवाते-दबवाते थे। उन पर तेल, घी या मज्जा की मालिश कराते थे । लोध्रकल्क (कक्क) चूर्ण और वर्ण का उन पर उपलेप कराते थे। फिर गरम या ठंडे पानी से उन्हें धो डालते थे। बाद में चन्दन आदि का लेप करते
और उन्हें धूप देते थे। शतपाक और सहस्रपाक नामक तेलों को अनेक जड़ी-बूटियों को तेल में सैकड़ों बार उबाल कर तैयार किया जाता था। दूसरे भी पुष्टिदायक और उल्लासप्रद तेलों को लोग शरीर पर मसलवाते.थे । स्नान के लिए अनेक प्रकार का सुगंधित जल काम में लाया जाता था। ' * लोह मिट्टी आदि के उपकरणों का निर्माण
भारतं कृषि प्रधान देश होने से खेती-बाड़ी आदि के लिए हल, कुदाली, नहनी, शस्त्र, कोश आदा आदि बनाने का कार्य लुहार करते थे। उनका व्यापार उन्नति पर था। तवा, कुडछा आदि घरेलू उपयोग के साधन भी लुहारों द्वारा बनाये जाते थे । लुहारों की दुकानों को कम्मारशाला और लुहारों को कम्मार कहते थे। लुहारों की दुकानों को समद अथवा आएस भी कहा गया है । भट्टियों में कच्चा लोहा पकाया जाता था। फिर लोहे को नेह (अहिकरणी) पर हथोड़ों से कूट-पीटकर उससे उपयोगी वस्तुएँ तैयार करते थे। ____ कंसेरे (कंसकार) काँसे के बर्तन बनाते थे। उनकी गिनती नौ कासओं में की गयी हैं। ... कुम्हार (कुंभकार) मिट्टी से अनेक प्रकार के घड़े-मटके आदि बनाते थे। .
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