Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 291
________________ किया करते थे। आगम साहित्य में इनके कई प्रकार के नाम मिलते हैं। जैसे मंडी (गाड़ियों और छकड़ों द्वारा माल ढोने वाले), बहिलग (ऊँट, खच्चर और बैलों द्वारा माल ढोने वाले), भारवह (अपना माल स्वयं ढोने वाले), ओदरिया (अपनी आजीविका के योग्य द्रव्य लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने वाले), कप्पडिय (कापार्टिक साधु) आदि । दूसरे प्रकार इस प्रकार हैं- कालोत्थायी (सूर्योदय होने पर गमन करने वाले), काल निवेक्षी (सूर्य का उदय होने पर या प्रथम पौरुषी- जिस काल में पुरुष प्रमाण छाया हो- में कहीं ठहरने वाले), स्थान स्थायी (गोकुल आदि में ठहरने वाले), कालभोजी (मध्याह्न सूर्य के समय भोजन करने वाले) आदि । सार्थ के लोग अरंगा (गाड़ी), पालकी, घोड़े, भैंसे, हाथी और बैल लेकर चलते थे, जिससे कि चलने में असमर्थ रोगियों, घायलों, बालकों और वृद्धों को इन वाहनों पर चढ़ाकर ले जाया जा सके। सार्थ के लोग आकस्मिक संकट, बाढ़, वर्षा आदि का ध्यान रखकर दन्तिक (मोदक), गेहूँ (गोर), तिल, बीज, गुड़, घी आदि वस्तुओं को अपने साथ लेकर चलते . थे। ये लोग अपना सामान गाड़ियों में भरकर मार्ग में स्थान-स्थान पर ठहरते हुए चलते थे। सार्थ के सब व्यापारी अपने में से किसी को प्रमुख चुन लेते थे। उसे सार्थवाह कहा जाता था । गमन करने से पूर्व वह मुनादी कराकर घोषणा करता था कि जो कोई उनके साथ यात्रा करेगा, उसके भोज, पान, वस्त्र औषधि आदि की व्यवस्था मुफ्त की जाएगी। सार्थवाह धनुर्विद्या आदि में एवं शासन में कुशल होता था। सार्थ के व्यापारी राजा की अनुज्ञापूर्वक गणिम (गिनने योग्य । जैसे जायफल, सुपारी आदि), घदिम (देखने योग्य । जैसे कंकु, गुड़ आदि), मेय (मापने योग्य । जैसे घी-तेल आदि) और परिच्छेद (परिच्छेद करने योग्य । जैसे रत्न, वस्त्र आदि) नामक चार प्रकार का माल लेकर धन कमाने के लिए गमन करते थे। गाड़ी या छकड़ा (सगड़ी-सागड़) को यातायात के उपयोग में लिया जाता था। मजबूत काष्ठवाली वज्रकील और लोहपट्ट से युक्त गाड़ी भारवहन करने में समर्थ समझी जाती थी। गाड़ी के पहियों के धुर में देक देकर पहियों को औंगा जाता था। मंडी, बहिलग, काय और शीर्ष का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनसे माल ढोया जाता था। यान वाहक यान और वाहन का ध्यान रखते थे। यानों में बैल जोते जाते थे। उन्हें आभूषणों से सजाते थे। बैलों के सींग तीक्ष्ण होते थे और उनमें घंटियाँ एवं सुवर्णखचित सूत्र की रस्सियाँ बँधी रहती थी। उनके मुँह में लगाम (पग्गह-पगहा) पड़ी रहती थी और नीलकमल उनके मस्तक पर शोभायमान रहते थे। वहकवान (२१६)

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