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से तर रखा जाता था। बकरी के तक्क (छाछ) का भी उल्लेख मिलता है । क्षीरगृह (खीर घर) में दूध से बने पदार्थ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते थे। * वनोपज
प्राचीन भारत का अधिकांश भू-भाग प्राकृतिक वातावरण के कारण वन, जंगल और अरण्यों से घिरा रहता था। राजगृह नगर के पास अठारह योजन लंबी एक महा अटवी थी, जहाँ बहुत से चोर निवास करते थे। पथिक प्राय: रास्ता भूल जाते थे। क्षीर वन अटवी, कोसंब (कोशाभ्र) अरण्य और दंडकारण्य के नाम प्रसिद्ध हैं। - वनों में भाँति-भाँति के वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लताएँ, वल्ली, तृण, वलय, हरित और औषधियाँ पायी जाती थीं । वृक्षों में नीम, आम, जामुन, साल, अंकोर, पील, श्लेषात्मक, सल्लकी, मोचकी, मालुक, बकुल, पलास, करंज, पुत्रजीवा, अरीठा, चहेडा, हर्द, मिलावा, क्षीरणी, घातकी, प्रियाल, पूतिकरज, सीसम, चुनाग, नागवृक्ष, श्रीपर्णी, अशोक, तिन्दुक, कपित्थक, अंबाडक, मातुलिंग, बेल, आँवला, फणस, दाडिम, पीपल, उदुबंर, बड, न्यग्रोध, पिप्पली, शतरी, पिलक्खु, काकोदुंबरी, कुस्तुंबरी, देवदाली, तिलक, लकुच, छत्रोध, शिरीष, सप्तपर्ण, भोजवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंग वृक्ष, पूगफली (सुपारी), खजूर, नारियल, दधिपर्ण, लोध, धव, चन्दन, अर्जुन, कुटज, कदंब आदि वृक्षों के उल्लेख मिलते हैं। दूध के वृक्षों में बड़, उदुंबर और पीपल के नाम मिलते हैं । नन्दीफल नाम के वृक्ष देखने में बड़े सुन्दर लगते थे, लेकिन उनके बीज खाने से मनुष्य मर जाता था। वृक्षों की बिक्री होती थी। ____ वृक्षों के सिवाय अनेक प्रकार की लताएँ, घास, साग-भाजी, बाँस आदि के नाम भी मिलते हैं। वृक्षों की लकड़ियाँ घर, यान, वाहन आदि बनाने के काम आती थीं। वन कर्म और अंगार कर्म का उल्लेख मिलता है । वनकर्म में रत लोग वृक्षों को गिरा कर उनसे लकड़ियाँ प्राप्त करते थे । लकड़हारों, सूखे पत्ते चुनने वालों (पत्तहारक) ।
और घसियारों (तृणकार) का उल्लेख मिलता है, जो जंगल में दिन भर लकड़ी काटते रहते थे, पत्ते चुनते रहते थे और घास काटते रहते थे। इन लोगों के अर्थोपार्जन के ये ही साधन थे।
भोजन के लिए पशु पक्षियों और मछली आदि जलचर जीवों को पकड़ने और मारने केभी उल्लेख मिलते हैं । इनका अर्थोपार्जन के लिए भी वध किया जाता था। इस निंद्य कार्य को करने वाले मृगलुब्धक, चिड़ीमार, मच्छीमार, शिकारी आदि कहलाते थे।
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