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आगम के अनुसंधानकर्ता पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वान डॉ. जेकोबी आदि का भी यही मत है कि समय की दृष्टि से जैनागम का रचना काल जो भी माना जये, किन्तु उसमें जिन तथ्यों का संग्रह है, वे तथ्य ऐसे नहीं है, जो उसी काल के हों । ऐसे कई तथ्य उसमें संग्रहित हैं, जिनका संबंध प्राचीन पूर्व परंपरा से है। अतएव विच्छिन्नता के बारे में निर्णय देने वाले विद्वानों को इस ओर भी देखना चाहिए।
इसी प्रकार से जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका और दूसरी बातें भी विचारणीय है, लेकिन उपसंहार के रूप में हमारा यह मन्तव्य है कि 'जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका' के लेखक या अन्य दिगंबर विद्वान सामान्य रूप से दिगंबर जैन साहित्य का इतिहास लिखें, तो जैन साहित्य कोष की वृद्धि में नया योग दे सकते हैं । जो होना था, सो हो चुका, फ़िर भी नयी सृजनात्मक प्रक्रिया की आशा तो की ही जा सकती है। * आगमों की सांप्रतिक संख्या
वर्तमान में जैनों द्वारा जो ग्रंथ आगम माने गये हैं, उनका वर्गीकरण व उनकी संख्या इस प्रकार हैं
जैन परंपरा में मुख्य तीन संप्रदाय हैं- १. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, २. स्थानक वासी और ३. दिगंबर । इन सब ने अंग और अंग बाह्य रूप में शास्त्रों के दो विभाग किये हैं और इस विषय में भी उनमें कोई विवाद नहीं है कि सकल श्रुत का मूल आधार गणधर ग्रंथित आचार आदि द्वादशांग है । बारह अंगों के नामों के संबंध में भी उनमें प्राय: एक मत है एवं वे यह भी मानते हैं कि अंतिम अंग दृष्टिवाद का लोप हुआ है।
अंगबाह्य अंगों की रचना स्थविरों द्वारा हई, यह मान्यता भी तीनों संप्रदायों में एक जैसी है । लेकिन किन ग्रंथों को अंगबाह्य आगमों में ग्रहण करना या किन्हें न करना, यह विवादास्पद है। दिगंबरों में तो पूर्व काल में यह मान्यता प्रचलित थी कि बारह अंग और चौदह अंग बाह्य कुल छब्बीस आगम हैं। लेकिन वीर निर्वाण के पश्चात् श्रुत का क्रमश: ह्रास होते होते ६८३ वर्ष के बाद कोई अंगधर या पूर्वधर आचार्य नहीं रहे, जिससे आगम का विच्छेद हो गया।
वर्तमान में जो ग्रंथ प्राप्त है, वे सब अंग और पूर्व के आंशिक ज्ञाता आचार्यों द्वारा रचित है। अतएव दिगंबर संप्रदाय में आगमों की विद्यमानता, उनकी संख्या आदि के सिवाय अन्य कुछ विशेष विचार नहीं किया गया है। लेकिन श्वेतांबर संप्रदाय के मत से अंग और अंगबाह्य दोनों प्रकार के आगम अधिकांशत: सुरक्षित हैं । ग्यारह अंगों की विद्यमानता को श्वेतांबर परंपरा के दोनों संप्रदायों ने स्वीकार किया है, लेकिन अंगबाह्य आगमों की संख्या में भिन्नता है । कुछ आगम ऐसे हैं, जिन्हें
8. Doctrine of the Jainas, page - 15