________________
पर संक्षिप्त व्याख्या करके विशेष जानकारी के लिए आवश्यक नियुक्ति की ओर संकेत कर दिया है । इस दृष्टि से अन्य नियुक्तियों का आशय ठीक से समझने के लिए इस नियुक्ति का अध्ययन करना आवश्यक है। जब तक आवश्यक नियुक्ति का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक अन्य नियुक्तियों का अर्थ समझने में कठिनाई होती है। .
इसी नियुक्ति को आधार बनाकर उत्तरवर्ती काल में आचार्य जिनभद्र, जिनदास. गणि, हरिभद्र कोट्याचार्य, मलयगिरि, मलधारी हेमचंद्र, माणिक्य शेखर आदि आचार्यों ने आवश्यक सूत्र के सामायिक आदि छह अध्ययनों की विविध व्याख्याएँ की हैं । आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने तो इसके पहले अध्ययन सामायिक पर ही विशेषावश्यक भाष्य नामक एक बृहद् भाष्य ग्रंथ लिखा है और इस भाष्य पर मलधारी हेमचंद्र ने विशेषावश्यक भाष्य बृहद् वृत्ति के नाम से एक बृहत्तम व्याख्या ग्रंथ की रचना की है। .
जिनदास गणि महत्तर ने निर्यक्ति के आधार पर आवश्यक चर्णि लिखी है। कहीं-कहीं पर भाष्य की गाथाओं का भी उपयोग किया गया है। चर्णि की भाषा मुख्यतया प्राकृत है, किन्तु यत्र तत्र संस्कृत श्लोक, गद्यांश एवं पंक्तियाँ भी उद्धृत हैं। कथानकों की इतनी अधिकता है कि दार्शनिक चर्चा का ग्रंथ होने पर भी यह चूर्णि कथा ग्रंथों की पूर्ति करती है। इन कथाओं से ऐसे अनेक दूसरे-दूसरे तथ्यों युगीन विचारों का पता लगता है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। विषय विवेचन का विस्तार जितना इस चर्णि में है, उतना अन्य चूर्णियों में अपेक्षाकृत न्यून है । भाषा में प्रवाह है और शैली भी ओजपूर्ण है। इसमें गोविन्द नियुक्ति, ओघ नियुक्ति चूर्णि, वसुदेव हिंडी आदि अनेक ग्रंथों का भी निर्देश किया गया है।
चूर्णि के उपोद्घात में प्रारंभ में मंगल चर्चा की गई है और मंगल के रूप में ज्ञान का विस्तृत विवेचन है । श्रुतज्ञान के अधिकार को दृष्टि में रखते हुए आवश्यक का निक्षेप पद्धति से विचार किया गया है । सामायिक नियुक्ति की चूर्णि में ‘करेमि' आदि पदों की पदच्छेद पूर्वक व्याख्या की गई है और छह प्रकार के करण का विस्तार से विवेचन किया है । द्वितीय अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव में नियुक्ति के अनुसार स्तव, लोक, उद्योत, धर्म, तीर्थंकर आदि पदों का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया है । तृतीय अध्ययन वंदना का व्याख्यान करते हुए अनेक दृष्टांत दिए हैं तथा वंदना कर्म के साथ-साथ चितिकर्म, कृति कर्म, पूजा कर्म और विनय कर्म का भी सोदाहरण व्याख्यान किया है । वंद्यावंद्य का विचार करते हुए वंद्य श्रमण का स्वरूप बतलाया है कि मेधावी, संयत और सुसमाहित सुविहित श्रमण की वन्दना करनी चाहिए। प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन के विवेचन में नियुक्ति के अनुरूप प्रतिक्रमण का-व्याख्यान किया है
(१५६)