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प्रश्नातिप्रश्न, लक्षण, व्यंजन और स्वप्न आदि का उल्लेख भी आगम ग्रंथों में उपलब्ध है, जिनके द्वारा लोग अपनी आजीविका चलाते थे।
विद्या सिद्धि के लिए लोग अनेक प्रकार के जप-तप करते थे। इसके लिए कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी की रात को साधक लोग श्मशान में जाकर तप करते थे। विद्या-सिद्धि के लिए अनेक प्रकार के टोना-टोटका आदि करने और देवताओं के लिए उचित-अनुचित उपाय करने से भी लोग चूकते नहीं थे। कार्यसिद्धि के लिए आराधना का प्रचार भी उस समय में बहुत अधिक था । छोटे-बड़े अपने-अपने कार्यों की सिद्धि के लिए देवताओं की आराधना करते थे। इसके अनेक उदाहरण आगम साहित्य में देखने को मिलते हैं।
जैन आगम में अनेक शुभ-अशुभ शकुनों का भी उल्लेख मिलता है । अनेक वस्तुओं का दर्शन शुभ और अनेक वस्तुओं का दर्शन अशुभ माना गया है । तिथि, करण और नक्षत्र का जगह-जगह उल्लेख आता है । लोग शुभ तिथि, करण और नक्षत्र देखकर ही किसी कार्य के लिए प्रस्थान करते थे । यात्रा के अवसर पर इसका विशेष ध्यान रखा जाता था। गमन के लिए.चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी और द्वादशी को शुभ बताया है और संध्याकालीन नक्षत्र को वर्जित कहा है। उल्लास और विषाद वाले कार्यों को करने के बाद में दिशाओं के शुभ और अशुभ के बारे में विचार किया जाता था। इसी प्रकार से और दूसरे शक्नों के लिए भी लोग अच्छा-बुरा मानकर कार्य में प्रवृत्त होते थे। * आमोद-प्रमोद और मनोरंजन के साधन
प्राचीन भारत के निवासी अनेक प्रकार से आमोद-प्रमोद और मनबहलाव किया करते थे। महं छण (क्षाण), उत्सव, यज्ञ, पर्व, पर्वणी, गोष्ठी, प्रमोद और संखडि आदि कितने ही उत्सव और त्यौहार थे, जबकि लोग जी भरकर आनन्द मनाते थे। सब निश्चित समय के लिए होता और उस दिन पकवान तैयार किए जाते थे।।
__मह में लौकिक देवी-देवताओं की पूजा का आयोजन किया जाता था । प्राचीन काल में इन्द्रमह सब उत्सवों में श्रेष्ठ माना जाता था। लोग इसे बड़ी धूमधाम से मनाते थे । निशीथ सूत्र में इन्द्र, स्कंद, यक्ष और भूत नामक महामहों का उल्लेख है, जो क्रमश: आषाढ़, आसोज, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा के दिन मनाए जाते थे। उस समय लोग खूब खाते-पीते, नाचते और गाते हुए आमोद-प्रमोद करते थे। अनेक राज्यों में और राजाओं द्वारा इन्द्रमह अपनी-अपनी विशेष पद्धतियों से मनाया जाता था। राजा लोग वैभवपूर्वक गाजे-बाजे के साथ इन्द्रकेत् की पूजा करते थे।
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