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अध्याय ९ आगम साहित्य में समाज व्यवस्था मनुष्यों के उस समूह को समाज कहते हैं, जिनकी एक आचार-विचार धारा है। व्यक्ति के जन्म के साथ इसका संबंध जुड़ता है और जीवनान्त में समाप्त होता है। इस जन्म और मरण के बीच एक लंबे समय तक समाज के बीच रहकर व्यक्ति अपने जीवन के संस्कारों, अभिरुचियों और निर्वाह के साधनों को अर्जित करता है। कुल, परिवार, कुटुंब आदि के संबंध जोड़ता है और अपने कल्याण सुख-सुविधाओं के साथ कुल आदि की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता है । इस प्रकार समाज का प्रत्येक व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से ऐसा जुड़ा रहता है कि अन्य की रुचियों की भिन्नता होने पर भी वे अभिरुचियाँ समाज के विरूद्ध नहीं जाती । किसी व्यक्ति द्वारा अपनाया हुआ मार्ग भिन्न या पृथक हो सकता है, लेकिन सबका उद्देश्य अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख पहुँचाना होता है । + वर्ण और जाति
प्राचीन भारतीय समाज का मेरुदंड 'जाति' ही था। 'जाति' वर्गों के आधार पर निर्धारित की जाती थी। जैन आगमों में समाज का आर्य और अनार्य की अपेक्षा से जाति भेद किया गया है। यह भेद व्यक्तियों के आचार और कार्यप्रणाली पर आधारित था, जबकि वैदिक साहित्य में 'जाति' का संबंध 'जन्म' से जोड़ा गया था और इसके लिए वर्ण शब्द का प्रयोग किया गया था । जैसे ब्राह्मण वर्ण, क्षत्रिय वर्ण आदि । वर्ण शब्द के प्रयोग का कारण यह था कि आर्य विजेता थे और गौर वर्ण के थे, जबकि अनार्य उनके अधीन थे और कृष्ण वर्ण के थे। जैन आगमों में शारीरिक रंग को-वर्ण को महत्व नहीं दिया गया है।
___ जैन आगमों में आर्यों की पाँच जातियाँ बतलाई है- क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, कुल आर्य, कर्म आर्य, भाषा आर्य और शिल्प आर्य । इनमें किस-किस का ग्रहण होता था, इसका उल्लेख भी वहाँ किया गया है।
वैदिक साहित्य में ब्राह्मण को सर्वोपरि माना गया है, लेकिन जैन और बौद्ध धर्म में ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का प्रभुत्व स्वीकार करते हुए वर्ण व्यवस्था का विरोध किया गया है, परन्तु इस विरोध से यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि भगवान महावीर और बुद्ध के युग में जाति और वर्ण भेद नष्ट हो गया था। जैन आगमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम के चार वर्णों का उल्लेख है और धर्म की अपेक्षा से इनका निर्धारण किया गया है।
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