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हस्तिपाल, सारस्वत, वज्जिगोदास, उत्तर बलिस्सह, चारण, कोटिक भाणव आदि का उल्लेख मिलता है। * पारिवारिक जीवन ___ अनेक परिवारों के समूह को समाज कहा जाता है। परिवार में पति-पत्नी, माता-पिता, छोटे भाई-बहन और विधवा स्त्रियों का समावेश होता था। ये सभी परिवार के सदस्य माने जाते थे। ये सब एक ही स्थान पर रहते थे। सबका भोजन एक ही जगह पर होता था और सब सामान्य जमीन-जायदाद का उपभोग करते थे। स्त्रियाँ कूटने-पीसने, रसोई बनाने, भोजन परोसने, पानी भरने, बर्तन माँजने आदि-घर गृहस्थी के सब काम करती थी । ननद और भावजों के बीच कलह चलता रहता था।
परिवार का मुखिया पुरुष माना जाता था। वह सबके भरण-पोषण की व्यवस्था करता था। सब लोग उसकी आज्ञा का पालन करते थे और उसकी पत्नी गृह स्वामिनी होती थी. जो परिवार के सब कामों का ध्यान रखती थी और अपने पति की आज्ञा में रहती थी।
माता-पिता, स्वामी और धर्माचार्य का यथेष्ट सम्मान किया जाता था । पिता को ईश्वर तुल्य माना जाता था । पुत्र और पुत्रियाँ प्रात:काल अपने पिता की पाद वंदना के लिए उसके सामने उपस्थित होते थे। जैसे-जैसे पिता वयोवृद्ध होता जाता था, वैसे-वैसे परिवार की देखरेख का भार ज्येष्ठ पुत्र पर पड़ता था। आगमों में उल्लेख है कि उस काल में जन्म, विवाह आदि विविध उत्सवों और त्यौहारों के अवसर पर सगे-संबंधियों को भोजन के लिए निमंत्रित करके उनके साथ आनन्द मनाया जाता
था।
* विवाह प्रथा
परिवार वृद्धि तथा गृह और सामाजिक व्यवस्था के लिए स्त्री और पुरुष का विवाहित होना परम आवश्यक माना जाता था। आगमों में यह उल्लेख तो मिलता है कि कन्या को योग्य वर एवं वर को योग्य कन्या प्राप्त हो, जिससे विवाह के पश्चात पति-पत्नी में पूर्ण सामंजस्य बना रहे, लेकिन विवाह योग्य अवस्था की जानकारी नहीं मिलती । हाँ, इतना अवश्य कहा गया है कि वर और वधू को सम वय होना चाहिए। इसका कारण यही जान पड़ता है कि तत्कालीन भारत में बड़ी अवस्था में विवाह होना हानिप्रद माना जाता होगा, जिससे किसी का उल्लेख नहीं किया गया हो।
आगमों में विवाह के तीन प्रकारों का उल्लेख मिलता है- १. वर और कन्या दोनों पक्षों के माता-पिताओं द्वारा आयोजित विवाह, २. स्वयंवर विवाह और ३. गांधर्व
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