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विजय विमल (सं. १६३४) की तन्दुल वैचारिक पर टीका है । यह टीका गुण सौभाग्य गणि से प्राप्त ज्ञान के आधार पर लिखी गई है । टीका शब्दार्थ प्रधान है तथा कहीं-कहीं अन्य ग्रंथों के भी उद्धरण हैं ।
इसके अतिरिक्त चतुःशरण पर विनयराज गणि, पार्श्वचंद्र, विजय सेन सूरि आदि ने, आतुर प्रत्याख्यान पर हेमचंद्र गणि आदि ने, संस्तारक पर समरचंद्र आदि ने और तन्दुल वैचारिक पर पार्श्वचंद्र आदि ने भी टीकाएँ लिखी हैं ।
आगमिक व्याख्या साहित्य के पूर्वोक्त परिचय के संदर्भ में यह भी समझ लेना चाहिए कि ये व्याख्या ग्रंथ केवल शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु इनमें भी आगमों की तरह स्व आचार विचार के सिद्धांतों के प्रतिपादन के साथ-साथ दर्शनान्तरों के आचार विचार, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, योग शास्त्र, नागरिक शास्त्र, भूगोल, राजनीति, इतिहास, संस्कृति व सभ्यता आदि विषयों के संबंध में भी प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है, जिसका उल्लेख यथास्थान दिया जा रहा है ।
यह व्याख्या साहित्य उतना ही विशाल हैं, जितना आगम वाङ्मय, जिसका कुल योग लाखों श्लोक प्रमाण हैं एवं जिसके तलस्पर्शी अध्ययन के लिए गंभीर चिन्तन, मनन अभ्यास, साधना एवं सुदीर्घ समय अपेक्षित है ।
यद्यपि यहाँ प्रस्तुत आगमिक व्याख्या साहित्य का परिचय सांकेतिक विहंगावलोकन मात्र है और इससे परिचय बिन्दु की आंशिक प्रतीति होती है, फिर भी यह भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने स्वरचित व्याख्या ग्रंथों में आगमों के अभिधेय प्रत्येक भाव, विचार का इतनी सरल-सुबोध शैली में निष्पक्ष चिन्तनवृत्ति के अनुसार व्याख्यान कर दिया है कि साधारण से साधारण पाठक भी जैन वाङ्मय के अन्तर रहस्य भलीभाँति हृदयंगम कर सकता है 1
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