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गुरुजनों के काल धर्म को प्राप्त होते जाने से कंठाग्र आगमों का बहत सा भाग उन्हीं के साथ चला गया था। इस स्थिति को देख कर उन्होंने अपने अपरिहग्रह व्रत को कुछ शिथिल किया। पहले जिस पुस्तक परिग्रह को असंयम का कारण समझ लिया गया था, मान लिया गया था, उसी को अब संयम का कारण माना जाने लगा, क्योंकि यदि वे वैसा न करते, तो श्रुत विनाश की आशंका को टाला नहीं जा सकता था। अतएव अब यही संभव था कि जो आगमिक संपत्ति शेष रह गयी है, उसे लिपिबद्ध करके सुरक्षित किया जाये । एतदर्थ आचार चर्या में परिवर्तन स्वीकार किये गये। श्रुति रक्षा के लिए लिखने लिखाने की प्रवृत्ति को महत्व दिया गया । इतना सब करने पर भी जो मौलिक कमी हो चुकी थी, उसकी पूर्ति नहीं हुई । विस्मृत एवं विलुप्त अंश प्राप्त नहीं हो सका।
चतुर्विध संघ श्रुत के ह्रास के प्रति चिन्तित था। श्रुत की सुरक्षा का प्रश्न महत्वपूर्ण था । श्रावक और श्राविकाएँ तो श्रुत की सुरक्षा में साक्षात् सक्रिय योग नहीं दे सकती थी। अत: बुद्ध के उपदेशों को व्यवस्थि करने के लिए समय-समय पर भिक्षुओं द्वारा की गयी संगतियों की तरह जैन आचार्यों ने भी क्रमश: पाटलिपुत्र, मथुरा
और वल्लभी में वाचनाएँ की। इसका समय भिन्न-भिन्न है। इनमें तत्कालीन जैन आचार्यों ने एकत्र हो कर जैन श्रुत को व्यवस्थित किया और विच्छिन्न अंशों की संगति बैठाने तथा आगत व्यवस्था को परिमार्जिन करने का प्रयास किया। * पाटलिपुत्र की वाचना
.. सर्व प्रथम पाटलिपुत्र में वाचना हुई। भगवान महावीर के निर्वाण से करीब १६० वर्षा बाद एक सुदीर्घकालीन दुर्भिक्ष से छिन्न-भिन्न तितर-बितर जैन श्रमण संघ पाटलिपुत्र में एकत्र हुआ। एकत्र श्रमणों ने एक दूसरे से पूछ-पूछ कर ग्यारह अंगों को व्यवस्थित किया, किन्तु यह देखा गया कि बारहवें अंग दृष्टिवाद का ज्ञान किसी को भी नहीं है । उस समय संपूर्ण दृष्टिवाद के एक मात्र ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु नेपाल में थे और बारह वर्षीय विशेष प्रकार की योग साधना में लगे रहने से वे वाचना में उपस्थित नहीं हो सके थे। अतएव संघ ने सर्वानुमति से योग्य पात्र मान कर अनेक साधुओं के साथ स्थूलिभद्र को दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए- वाचना लेने के लिए भद्रबाहुं स्वामी के पास भेजा। दस पूर्व का अध्ययन पूर्ण मनोयोग से करने के बाद उन्होंने परीक्षण के तौर पर अपनी श्रुत लब्धि का प्रयोग किया। इसका पता जब भद्रबाहु को लगा, तब उन्होंने आगे अध्ययन कराना छोड़ दिया। स्थूलिभद्र के १. कालं पुण पडुच्च चरण करणट्ठा अपोच्छित्ति निमित्तं च गेण हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ ।
--दशवैकालिक चूर्णी पृष्ठ २१ २. आवश्यक चूर्णी भाग २ पृष्ठ १८७
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