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इसके अतिरिक्त दिगंबर परंपरा के आचार्य धरसेन, यतिवृषभ, कुन्दकुन्द, भट्ट अकलंक आदि ने समकालीन उपलब्ध आगमों अथवा उनसे पूर्व के उपलब्ध आगमों के आशय को ध्यान में रखते हुए जो नवीन ग्रंथों की रचना की, उनमें से आचार्य कन्दकन्द रचित साहित्य में आचार पाहुड़, सुत्तपाहुड़, स्थान पाहुड़, समवाय पाहुड़ आदि ऐसे अनेक ग्रंथ हैं, जिनका नाम सुनने से आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग आदि की स्मृति हो जाती है। प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने इन पाहुड़ों की रचना इन अंगों के आधार पर की हो । इसी प्रकार षट् खंडागम, जय धवला, महाधवला आदि ग्रंथ भी आगमों के आधार पर बनाए होंगे, क्योंकि इनमें स्थान-स्थान पर परिकर्म आदि का निर्देश किया गया है। इससे अनुमान होता है कि इन ग्रंथों के निर्माताओं के सामने दृष्टिवाद के एक अंश परिकर्म का कोई भाग अवश्य रहा होगा। जिस प्रकार विशेषावश्यक भाष्यकार ने अपने भाष्य में अनेक स्थानों पर दृष्टिवाद के एक अंश रूप 'पूर्वगत' गाथा का निर्देश किया है, इसी प्रकार ये ग्रंथकार भी परिकर्म का निर्देश करते हैं।
. उक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि दिगंबर परंपरा के आचार्यों ने अपने सामने विद्यमान आगमों का अवलंबन लेकर नया साहित्य तैयार किया है। इसके अतिरिक्त दूसरा आशय यह भी फलित होता है कि उन ग्रंथकारों के समय में प्राप्त आगमों पर रचित ग्रंथों को तो दिगंबर परंपरा प्रमाणभूत मानने में किसी प्रकार की नं नु न च नहीं करती, किन्तु उन आगमों को प्रमाण नहीं मानती । इस विडम्बना के लिए पाठक स्वयं निर्णय करें।
इस प्रकार संक्षेप में अंग आगमों के बाह्य परिचय की रूपरेखा बताने के अनन्तर अब उत्तरवर्ती प्रकरणों में अंग ग्रंथों का आन्तर परिचय देते हैं।
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