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होगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई कारण रहा हो और उस का स्पष्टीकरण भी किया हो, लेकिन जैसे आगमों की अनेक परंपराएं काल के गर्भ में समा गयीं, वैसा ही इसके साथ भी न हुआ हो । ऐसी दशा में जो अवशिष्ट है और जिस रूप में अंगबाह्य आगमों का वर्गीकरण उपलब्ध है, उसी को स्वीकार करने में सन्तोष मान लेना चाहिए।
बारह उपांगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं
१. औपपातिक, २. राजप्रश्नीय, ३. जीवाभिगम्, ४. प्रज्ञापना, ५. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, ६. सूर्य प्रज्ञप्ति, ७. चन्द्र प्रज्ञप्ति, ८. कल्पिका, (निरयावलि), १०. कल्पावतंसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्प चूलिका, १२. वृष्णिदशा ।
इन बारह उपांगों का अर्वाचीन आचार्यों ने अंगों के साथ संबंध जोड्ने का प्रयत्न किया है। जैसे कि श्री चन्दसूरि (विक्रम की बारहवीं सदी) ने अपनी खबोध समाचारी में औपपातिका को आचारांग का, राप्रश्नीय को सूत्रकृतांग का, जीवाभिगम को स्थानांग का, प्रज्ञापना को समवायांग का, सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का, जंबू द्वीप प्रज्ञप्ति को ज्ञाताधर्म कथा का, चन्द्र प्रज्ञप्ति को उपासक दशा का, कल्पिका को अन्तकृत दशा का, कल्पावतंसिका को अनुत्तरोपपातिक दशा का, पुष्पिका को प्रश्रव्याकरण का, पुष्प चूलिका को विपाकसूत्र का और वृष्णिदशा को दृष्टिवाद का उपांग स्वीकार किया है। औपपातिक के टीकाकार अभयदेवसूरि (ग्यारहवी शताब्दी) औपपातिक को आचारांग का उपांग मानते हैं । राजप्रश्नीय के टीकाकार मलयगिरि (बारहवीं शताब्दी) ने भी राजप्रश्नीय को सूत्रकृतांग का उपांग बताते हुए कहा है कि अक्रियावादी मत को स्वीकार करके ही राजप्रश्नीय में उल्लिखित राजा प्रदेशी ने जीव विषयक प्रश्न किया है, इसलिए राजप्रश्नीय को सूत्रकृतांग का उपांग मानना योग्य है । लेकिन देखा जाये तो जैसे जीवाभिगम और स्थानांग का, सूर्यप्रज्ञप्ति और भगवती का, चन्द्रप्रज्ञप्ति
और उपासक दशा का तथा वृष्णिदशा और दृष्टिवाद का संबंध सिद्ध नहीं होता, वैसे ही राजप्रश्नीय और सूत्रकृतांग का भी कोई संबंध नहीं बनता। .
__ वर्तमान में उपांगों का जो क्रम प्रचलित है, वह भी ऐतिहासिक दृष्टि से समुचित मालूम नहीं होता । जैसे की प्रज्ञापना चुतर्थ उपांग के कर्ता आर्य श्याम माने जाते हैं, जो महावीर निर्वाण के ३७६ या ३८६ वर्ष में विद्यमान थे, लेकिन प्रज्ञापना को पहला उपांग न मानकर चतुर्थ उपांग माना है।
अंग साहित्य की तरह उपांग साहित्य काल दोष से अनेक स्थानों पर विश्रृंखलित हो गया है। जैसे कि सूर्य प्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय समान होने पर भी उन्हें भिन्न-भिन्न उपांग माना है । भगवती यद्यपि कालक्रम की दृष्टि से उपांगों की अपेक्षा प्राचीन है, किन्तु इसमें किसी विषय को विस्तार से जानने के लिए
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