________________
१३. महापुंडरीक-उन्हीं इन्द्रों आदि में उत्पत्ति के कारण भूत तप विशेष आदि का वर्णन इसमें है। ..
१४. निषिद्धिका- इसमें अनेक प्रकार के प्रायश्चितों का वर्णन है।
इस प्रकार दिगम्बर परंपरा में अंगबाह्य आगमों के वर्ण्य विषयों का उल्लेख किया गया है । लेकिन इनको भी अंग आगमों की तरह ग्राह्य न मान कर इन पर रचित ग्रंथों को प्रमाणभूत माना है, जो एक आश्चर्य की बात है। इस अस्वीकृति का क्या उद्देश्य रहा होगा, यह तो वे ही जाने, लेकिन हम यह अवश्य अनुभव करते हैं कि इससे हमारी अपार क्षति हुई है। यह तथ्य जैन साहित्य का इतिहास- पूर्व पीठिका के पृष्ठ ५४३ के निम्न अवतरण से स्पष्ट हो जाता है
__"उक्त विश्लेषण से पाठक समझ सकेगें कि दिगंबर परंपरा में स्वेतांबर संप्रदाय की तरह अंगों के संकलन का सामूहिक प्रयत्न क्यों नहीं किया गया और क्यों दिगंबरों ने उक्त रीति से संकलित आगमों को मान्य नहीं किया। इससे यद्यपि उनकी अपार क्षति हुई।” . - अब हम अपने मूल शीर्षक के अनुसार श्वेतांबर परम्परा मान्य अंग बाह्य आगमों का परिचय प्रस्तुत करते हैं। * उपांगविभागगत आगम
जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि उपांग शब्द का प्रयोग पहले समस्त अंगबाह्य आगमों के लिए प्रयुक्त किया जाता था, लेकिन वर्तमान में बारह ग्रंथों के लिए उपांग शब्द रूढ़ हो गया है। उपांग का सामान्य अर्थ होता है- सहकारी अंग । जैसे - कान, नाक, आँख, हाथ, पैर, आदि मानव शरीर के उपांग हैं । वैदिक परंपरा में तो वेदों को अंग मान कर पुराण, न्याय मीमांसा, धर्मशास्त्र और वेदों के व्याख्या ग्रंथों को सहायक- सहकारी अंग-उपांग माना है, लेकिन जैन परंपरा में भी उपांग शब्द का प्रयोग किया जाना विचारणीय है। क्योंकि बारह अंगों की भाँति बारह उपांगों का उल्लेख प्राचीन आगम ग्रंथों में प्राप्त नहीं होता। समवायांग सूत्र में बारह वस्तुओं की गणना करते समय द्वादश अंगों का वर्णन किया गया है, लेकिन वहाँ द्वादश उपांगों के नामों का उल्लेख नहीं है । नंदीसूत्र में भी कालिक-उत्कालिक के रूप में उपांगों का उल्लेख है, किन्तु बारह उपांगों के रूप में नहीं। केवल निरयावलिया के प्रारंभ में निरयावलिया आदि पाँच आगमों को उपांग संज्ञा दी गयी है, लेकिन वहाँ बारह ग्रंथों के वर्ग के रूप में उपांग शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इस प्रकार बारह उपांग संबंधी उल्लेख बारहवीं शताब्दी के पूर्व के ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता । इस स्थिति में यही संभावना मानी जा सकती है कि श्रुत पुरुष की कल्पना में आचार आदि आगमों को अंग मानने के प्रसंग में तद्वयतिरिक्त आगमों को उपांग मानने का आविर्भाव हुआ
(७९)