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संघदास गणि भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दो भाष्य उपलब्ध हैं-बृहत्कल्प लघु भाष्य और पंचकल्प महाभाष्य। मुनिश्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदास नाम के दो आचार्य हैं। एक वसुदेव हिंडी प्रथम भाग के प्रणेता
और दूसरे बृहत्कल्प लघुभाष्य एवं पंचकल्प महाभाष्य के कर्ता । क्योंकि वसुदेव हिंडी मध्यखण्ड के कर्ता आचार्य धर्मसेन गणि के कथनानुसार वसुदेव हिंडी प्रथम खण्ड के प्रणेता वाचक पद से अलंकृत थे, जबकि भाष्य प्रणेता संघदास गणि क्षमा श्रमण पद से अलंकृत थे। लेकिन पदवी भेद से व्यक्ति भेद भी हो जाता है, यह विचारणीय है। क्योंकि कभी-कभी एक ही व्यक्ति दो पदवियों से अलंकृत हो सकता है और विभिन्न दृष्टियों से उनका समयानुसार प्रयोग भी होता है । अतः संघदास नाम के दो अलग-अलग आचार्य हो, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। ____मुनिश्री पुण्यविजयजी ने भाष्यकार तथा वसुदेवहिंडीकार आचार्यों को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने के लिए एक और हेतु दिया है । वह यह है कि आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती ग्रंथ में वसुदेव हिंडी प्रथम भाग में चित्रित ऋषभदेव चरित्र की संग्रहणी गाथाएँ बनाकर उनका अपने ग्रंथ में समावेश भी किया है । इससे यह सिद्ध होता है कि वसुदेव हिंडी प्रथम खण्ड के प्रणेता संघदास आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं। आज यह ऐतिहासिक गुत्थी अनसुलझी पड़ी है, लेकिन प्राप्त प्रमाणों के आधार से अब यह तो स्वीकार करने लगे हैं कि भाष्यकार संघदास गणि आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं।
भाष्यकारों का नामोल्लेख करने के प्रसंग में अब भाष्यों के नामों का संकेत करते हैं। प्रत्येक आगम पर जैसी नियुक्तियाँ नहीं लिखी गईं, वैसे ही प्रत्येक आगम पर भाष्य भी नहीं लिखे गए। जिन आगमों पर भाष्य लिखे गए हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं-१. मूल भाष्य, २. भाष्य और ३. विशेषावश्यक भाष्य । यह विशेषावश्यक भाष्य आवश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन का सामयिक पद है, लेकिन काफी विस्तृत एवं महत्वपूर्ण है । पहले और दूसरे भाष्य संक्षिप्त है। उनकी अनेक गाथाएँ विशेषावश्यक भाष्य में सम्मिलित कर ली गई है। उत्तराध्ययन भाष्य भी बहुत छोटा है। उसमें कुल पैंतालीस गाथाएँ हैं । बृहत कल्प पर बृहत और लघु ये दो भाष्य हैं । व्यवहार एवं निशीथ भाष्य में लगभग ४३२९
और ६५०० गाथाएँ हैं। इसके अतिरिक्त पंचकल्प, जीतकल्प, ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति पर भी भाष्य लिखे गए हैं।
चूर्णिकार-नियुक्ति एवं भाष्य तक व्याख्या ग्रंथों की भाषा प्राकृत और शैली पद्यात्मक रही । इसके बाद उत्तरवर्ती आचार्यों ने गद्यात्मक शैली में प्राकृत या प्राकृत
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