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गाथा का अर्थ उनकी समझ में नहीं आया। वे उपाश्रय में पहुँचे और साध्वियों से गाथा का अर्थ पूछा । साध्वियों ने उन्हें आचार्य जिनभद्र के पास भेजा। आचार्य ने हरिभद्र को गाथा का अर्थ समझाया । हरिभद्र की इच्छा जैन दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने की हुई । उन्होंने गहन अध्ययन किया और आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की और साध्वी याकिनी महत्तरा को अपनी धर्ममाता माना । वे स्वयं को याकिनी महत्तरा सूनु कहते थे। स्थान-स्थान पर घूमकर उन्होंने जिन शासन का प्रचार किया।
प्रभावक चरित्र में वर्णित उक्त उल्लेख से हरिभद्र के दीक्षा गुरु आचार्य जिनभद्र सिद्ध होते हैं, किन्तु हरिभद्र के खुद के उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र उनके गच्छाधिपति थे, जिनदत्त दीक्षा दाता गुरु थे और याकिनी महत्तरा उनकी धर्ममाता थी । उनका कुल विद्याधर गच्छ था और संप्रदाय श्वेताम्बर था।
कहा जाता है कि हरिभद्र सूरि ने १४४४ ग्रंथों की रचना की थी। इसके लिए यह कारण बताया जाता है कि १४४४ बौद्ध साधुओं का संहार करने के संकल्प के प्रायश्चित के रूप में उनके गुरु ने १४४४ लिखने की उन्हें आज्ञा दी थी। इस घटना का उल्लेख राजशेखरसूरि ने अपने चतुर्विंशति प्रबंध और मुनि क्षमाकल्याण ने अपनी खरतरगच्छ पट्टावली में भी किया है।
हरिभद्रसूरि के कुछ ग्रंथ पचास श्लोक प्रमाण भी है। इसी प्रकार सोलह श्लोकों के षोडशक और बीस श्लोकों की विशिकाएँ भी हैं । इनकी एक स्तुति 'संसार दावानलदाह नीर' तो केवल चार श्लोक प्रमाण ही है । इस प्रकार देखे तो इनके ग्रंथों की संख्या में और भी वृद्धि की जा सकती है।
आचार्य हरिभद्र ने अपने प्रत्येक ग्रंथ में प्रायः 'विरह' शब्द का प्रयोग किया है। प्रभावक चरित्र में इस तथ्य के लिए बताया है कि अपने अतिप्रिय दो भानजे शिष्यों-हंस और परम हंस के विरह से दुःखित हृदय होकर उन्होंने अपने प्रत्येक ग्रंथ को 'विरह' शब्द से अंकित किया है।
वर्तमान में आचार्य हरिभद्र कृत तिहत्तर ग्रंथ उपलब्ध हैं। उनमें न्याय, अध्यात्म, स्तुति, चरित्र आदि विविध विषय हैं । आगमों में से उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नंदी, अनुयोग द्वार आदि आगमों पर टीकाएँ लिखी हैं। इनके उपलब्ध ग्रंथों के अवलोकन से इनकी विद्वता का पता लग जाता है । ये एक समदर्शी और बहुश्रुत विद्वान थे।
इनके समय के बारे में यह कहा जाता है कि जैन परंपरानुसार वि.स. ५८५ अथवा वीर संवत् १०५५ या ई.स. ५२८ में इनका स्वर्गवास हो गया था। इस मान्यता को मिथ्या सिद्ध करते हुए डॉ. जेकोबी लिखते हैं कि ई.स. ६५० में होने वाले धर्मकीर्ति
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