Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 211
________________ लोकविजय, गुणस्थान, परिताप, विहार, रति, अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, जाति, जातिस्मरण, एषणा, देशना, बंध मोक्ष, शीतोष्ण परीषह, तत्वार्थ, श्रद्धा, जीव रक्षा, अचेलत्व, मरण संलेखना, समनोज्ञत्व, या मंत्रय, त्रिवस्त्रताह, वीर दीक्षा, देवदूष्य और स्वतंत्रता आदि का व्याख्यान किया है। द्वितीय श्रुतस्कंध का व्याख्यान करते हुए मुख्यतया निम्न विषयों का विवेचन किया गया है-अग्र, प्राण, संसक्त, पिण्डैषणा, शैय्या, ईर्या, भाषा, वस्त्र, पात्र, अवग्रह, सप्तक, सप्त सप्तक, भावना और विमुक्ति। इनका विवेचन करने का कारण यह है कि आचारांग सूत्र का प्रयोजन श्रमणों के आचार-विचार धर्म की प्रतिष्ठा करना है। अतः प्रत्येक विषय का प्रतिपादन इसी प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए किया गया है। आचार्य शीलांक ने आचारांग विवरण के नाम से अपनी टीका मूल सूत्र और नियुक्ति के आधार से लिखी है। उसमें शब्दार्थ के साथ-साथ प्रत्येक विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है तथा स्वकथन की पुष्टि के लिए यत्र तत्र बीच-बीच में अनेक संस्कृत प्राकृत उद्धरण भी दिए हैं, लेकिन तत्संबद्ध ग्रंथ या रचियता का नामोल्लेख नहीं किया है। भाषा शैली, सामग्री आदि सभी दृष्टियों से टीका सुबोध प्रथम श्रुतस्कंध का प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम विवरण कार ने जिन तीर्थ की महिमा बताई है और उसके लिए जयघोष किया है तथा गंधहस्ती कृत शस्त्र परिज्ञा विवरण को अति कठिन बताते हुए आचारांग पर सरल, सुबोध, विवरण लिखने का संकल्प किया है । इसी प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रारंभ में पुनः मध्यमंगल करते हुए तीन श्लोक लिखे हैं तथा चतुर्च्डात्मक द्वितीय श्रुतस्कंध की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है। दोनों श्रुतस्कंधों के विवरण के अंत में समाप्ति सूचक श्लोक हैं और अंत में आचारांग की टीका लिखने से प्राप्त स्वपुण्य को लोक की आचार शुद्धि के लिए प्रदान करने की भावना व्यक्त की है। सम्पूर्ण टीकाग्रंथ बारह हजार श्लोक प्रमाण है । आचार्य शीलांक कृत आचारांग विवरण के आधार पर चंद्रगच्छीय महेश्वर सूरि के शिष्य अजितदेव सूरि ने आचारांग दीपिका लिखी है। इसका रचना समय वि.स. १६२९ के आसपास है । टीका सरल, संक्षिप्त एवं सुबोध है । अभी इसका पूर्वार्द्ध प्रकाशित है । इस दीपिका को समझ लेने पर विवरण का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है। मुनि धर्मसिंह द्वारा लोक भाषा (प्राचीन गुजराती) में लिखित बालावबोध (टब्बा) अप्रकाशित है। (१३६)

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