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१. महानिशीथ- भाषा और विषय की दृष्टि से इसकी गणना प्राचीन आगमों में नहीं की जा सकती । इसमें यत्र तत्र आगमेतर ग्रंथों के भी उल्लेख मिलते हैं । इसमें छह अध्ययन और दो चूलिकाएँ हैं । ग्रंथमान ४५५४ श्लोक प्रमाण है।
प्रथम अध्ययन शल्योद्धरण में पाप रूपी शल्य को निन्दा एवं आलोचना करने की दृष्टि से अठारह पापस्थान तक बताए हैं। दूसरे अध्ययन में कर्मविपाक का वर्णन करते हए पापों की आलोचना पर प्रकाश डाला है। तीसरे व चौथे अध्ययन में कुशील साधुओं से दूर रहने का उपदेश है । पाँचवें नवनीत सार अध्ययन में गच्छ के स्वरूप का विवेचन है। छठे अध्ययन में प्रायश्चित के दस व आलोचना के चार भेदों का विवेचन है। . चूलिकाओं में सुसढ आदि की कथाएँ हैं । यहाँ सतीप्रथा का और राजा के पुत्रहीन होने पर कन्या को राजगद्दी पर बैठाने का उल्लेख है।
२. जीतकल्प- इस ग्रंथ में निग्रंथ-निर्ग्रथिनियों के भिन्न-भिन्न अपराध स्थान विषयक प्रायश्चित का जीत व्यवहार के आधार पर निरूपण किया गया है । इसमें कुल एक सौ तीन गाथाएँ हैं और इसके रचयिता प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण है।
प्रायश्चित के निम्नलिखित दस भेद हैं
१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिक.। इन प्रायश्चितों के प्रसंग में यह बतलाया गया है कि किस दोष के लिए कौन सा प्रायश्चित विधेय है । प्रत्येक प्रायश्चित के प्रसंग में उन क्रियाओं व दोषों के नाम गिनाए हैं। अंत में उपसंहार करते हुए यह बताया गया है कि इन दस प्रायश्चितों में से अंतिम दो प्रायश्चित-अनवस्थाप्य व पारांचिक चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु तक ही अस्तित्व भेद हैं और उसके बाद उनका विच्छेद हो गया।
३. पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति- इन दोनों को मूलसूत्र माना जाता है। कोई-कोई ओघनिर्यक्ति को और कोई दोनों को मानते हैं । पिण्ड का अर्थ है-भोजन। पिण्डनियुक्ति में पिण्डनिरूपण उद्गम दोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष और ग्रासएषणा दोष का निरूपण किया गया है। इसमें छह सौ इकहत्तर गाथाएँ हैं। नियुक्ति और भाष्य की गाथाएँ एक दूसरी में मिल गई हैं । दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन
१. गच्छाचार प्रकीर्णक का यह अध्ययन आधार है। २. जो व्यवहार परंपरा से प्राप्त हो एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो; वह जीत व्यवहार कहलाता
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