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तीसरे चक्रवाधिकार में भरत चक्रवर्ती का वर्णन हैं । चौथे अधिकार में क्षेत्र वर्षधरों का वर्णन किया गया है। पांचवें अधिकार में प्रदेश स्पर्शनाधिकार, खंड, योजन, क्षेत्र, पर्वत, कूट, तीर्थ, श्रेणी, विजय, द्रह और नदी द्वार का वर्णन है। छठा ज्योतिषी चक्राधिकार है । इसमें सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि ज्योतिष मंडल का वर्णन है। सातवें अधिकार में संवत्सरों का वर्णन है। आठवें नक्षत्राधिकार में नक्षत्र और तारामंडल का वर्णन है । नौवें अधिकार में ज्योतिषी चक्र का वर्णन है कि नीचे तथा ऊपर के तारे कितने हैं। उनका परिवार, मेरु पर्वत से दूरी, लोकान्त तथा समतल भूमि से अन्तर, बाह्य और अभ्यन्तर तारे तथा उनमें अन्तर, संस्थान और परिणाम, विमान वाहक देव, गति, अल्पबहुत्व ऋद्धि, परस्पर अन्तर आदि-आदि । दसवें अधिकार का नाम समुच्चय अधिकार है । इसमें जंबूद्वीप में होने वाले उत्तम पुरुष, जंबूद्वीप में निधान, रत्नों की संख्या, जंबूद्वीप की लंबाई-चौड़ाई, जंबूद्वीप की स्थिति, जंबूद्वीप में क्या अधिक है? इसका नाम जंबूद्वीप क्यों है ? इत्यादि का वर्णन है।
७. चन्द्र प्रज्ञप्ति- चंद्र प्रज्ञप्ति सातवाँ उपांग है । इसे सातवें अंग आगम उपासक दशा का उपांग माना गया है। यह कालिक सूत्र है। सूर्य प्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति इन दोनों नामों से मालूम होता है कि सूर्य प्रज्ञप्ति में सूर्य के परिभ्रमण आदि का और चंद्र प्रज्ञप्ति में चन्द्रमा से संबंधित वर्णन होगा, लेकिन वर्तमान में उपलब्ध चंद्र और सूर्य दोनों प्रज्ञप्तियों का विषय बिल्कुल समान है अथवा मिला हुआ है। इस सूत्र का विषय गणितानुयोग है । बहुत गहन होने के कारण यह सरलता से समझ में नहीं आता । इसमें भी सूर्य प्रज्ञप्ति के समान ही बीस प्राभृत है । स्थानांग (४/२७७) में चन्द्र, सूर्य, जंबूद्वीप और द्वीप सागर इन चार प्रज्ञप्तियों को अंगबाह्य श्रुत में गिना गया है। नंदीस्त्र में भी इसी प्रकार इन चारों को अंग बाह्य श्रुत में माना है । द्वीप सागर प्रज्ञप्ति तो अप्राप्य है । शेष तीन का परिचय ऊपर दिया गया है। .८-१२ निरयावलिका आदि- निरयावलिका अथवा कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा ये पाँचों उपांग निरयावलिका श्रुतस्कंध में समविष्ट हैं । इनके बारे में प्रो. विंटरनित्झ का कथन है कि मूलत: ये पाँचों उपांग निरयावलिका सूत्र के नाम से कहे जाते थे, लेकिन उपांगों की संख्या का अंगों की संख्या के साथ मेल करने के लिए इन्हें अलग-अलग गिना जाने लगा। ये पाँचों कालिक श्रुत है और वृष्णिदशा में बारह तथा शेष चार में दस-दस अध्ययन हैं । इनके प्रत्येक अध्ययन में एक-एक कथा है।
निरयावलिका का प्रारंभ इस प्रकार किया गया है- राजगृह नगर में गुणशील नामक एक चैत्य था। वहाँ भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा नामक गणधर
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