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उक्त संक्षिप्त परिचय से यह स्पष्ट होता है कि उपलब्ध सूत्रकृतांग में उन विषयों का वर्णन है, जो उसके विचारणीय माने गए हैं। यह बात दूसरी है कि किसी विषय का निरूपण अधिक विस्तार से और किसी का संक्षेप में किया गया है।
सूत्रकृतांग के संकलन संपादन के लिए प्रो. विण्टरनीत्ज का अभिमत है कि सूत्रकृतांग की रचना एक ही कर्ता की हो, यह संभव है । अधिक निश्चित तो यह है कि उसके संकलनकर्ता ने एक ही विषय के भिन्न-भिन्न पदों और व्याख्याओं को एक साथ रखा है। दूसरे श्रुतस्कंध में दूसरा ही रूप देखते हैं । वह पद्य में है और उसमें परिशिष्टों का संग्रह कुशलता से नहीं किया गया है। फिर भी भारतीय जीवन पद्धति संबंधी ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह श्रुतस्कंध बहुत उपयोगी है। * ३-४. स्थानांग, समवायांग
ये दोनों क्रमशः तीसरे और चौथे अंग आगम है। इन अंगों की उपलब्ध सामग्री और शैली को देखकर यह मालूम होता है कि काल आदि के दोषं से ये ग्रंथ बहुत छोटे हो गए हैं और ये छिन्न-भिन्न हो गए प्रतीत होते हैं। फिर भी वे जिस रूप में आज उपलब्ध हैं, अपने महत्व का भली-भाँति परिचय देते हैं।
स्थानांग में जीव, अजीव, जीवाजीव, स्व, पर और स्व पर सिद्धांतों, लोक, अलोक और लोकालोक, पर्वत, नदी, द्वीप आदि भौगोलिक, खगोलिक, प्राणी विज्ञान, भौतिक विज्ञान, प्राकृतिक वातावरण आदि से संबंधित वस्तुओं का वर्णन किया गया है। इसमें एक श्रुतस्कंध और एक से लेकर दस संख्या तक के दस अध्ययन हैं। वस्तु का निरूपण संख्या की दृष्टि से किया गया है, जिससे प्रति पाद्य विषयों में परस्पर संबद्धता होना आवश्यक नहीं है । अर्थात् विषयों की व्यवस्था उनके भेदों की संख्या के अनुसार की गई है । समान संख्या वाले विषयों को एक साथ रखा है। जैसे एक भेद वाले पदार्थों को एक संख्यक वर्ग में, दो संख्या वाले पदार्थ द्वि संख्यक वर्ग में इत्यादि. जिस प्रकरण में निरूपणीय सामग्री अधिक है, उसके उपविभाग भी किए हैं। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ प्रकरण में ऐसे चार-चार उपविभाग हैं तथा पंचम प्रकरण में तीन उपविभाग हैं। इन उपविभागों का नाम उद्देश है।
. समवायांग का वर्णन भी स्थानांग से मिलता-जुलता है, लेकिन अन्तर इतना है कि इसमें एक से लेकर एक सौ उनसाठ तक भेदों वाले बोल एक-एक भेद की वृद्धि करते हुए क्रमशः बतलाए हैं। इसमें एक अध्ययन, एक श्रुतस्कंध एक उद्देश और एक समुद्देश है।
इन दोनों अंग आगमों में ऐसी भी अनेक बातों का समावेश कर लिया गया
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