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गया है, क्योंकि इनमें उन बातों का विस्तार से अध्ययन किया गया है, जिनको प्रथम श्रुतस्कंध में संक्षेप में कहा गया है ।.
प्रथम पुण्डरीक अध्ययन में जिस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में विविध वादी मतों का उल्लेख है, उसी प्रकार इस अध्ययन में भी इन वादियों में से कुछेक मतों की चर्चा है । इनकी चर्चा का प्रारंभ वादियों को पुण्डरीक कमल की पँखुड़ियों की उपमा रूपक देकर किया है और इसका सार बताते हुए कहा है कि यह संसार पुष्करिणी तालाब के समान है । इसमें कर्मरूपी जल एवं कामभोग रूपी कीचड़ भरा हुआ है । अनेक जनपद चारों ओर फैले कमल के समान है। मध्य में रहा हुआ पुण्डरीक राजा के समान है । पुष्करिणी में चारों दिशाओं से प्रविष्ट होने वाले चार पुरुष अन्य तीर्थिक (मतावलंबी) हैं और कुशल भिक्षु धर्मरूप हैं । किनारा धर्मतीर्थ रूप है । भिक्षु द्वारा उच्चारित शब्द धर्मकथा रूप है और पुण्डरीक का उठना मोक्ष के समान है। ___ उक्त चार पुरुषों में से प्रथम तज्जीव तच्छरीर वादी है । वह जीव शरीर को एक मानता है। दूसरा पुरुष भूतवादी है । उसके मत से पृथ्वी आदि पंचभूत.यथार्थ है और उनके संयोग से जीव की उत्पत्ति होती है । तीसरा पुरुष ईश्वर कारणवादी है। उसके मत से यह लोक ईश्वरकृत है । चौथा पुरुष नियतिवादी है । उसके मतानुसार सारी क्रियाएँ नियत-अपरिवर्तनीय है । जो क्रिया जिस रूप में नियत है, वह उसी रूप में पूरी होगी। उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता । इस अध्ययन में कुछ वाक्य आचारांग से मिलते-जुलते हैं।
क्रिया स्थान नामक द्वितीय अध्ययन में विविध क्रिया स्थानों का परिचय है। क्रिया स्थान का अर्थ है प्रवृत्ति का निमित्त । क्रिया स्थान प्रधानतः दो प्रकार के होते हैं-धर्म क्रिया स्थान और अधर्म क्रिया स्थान । अधर्म क्रिया स्थान के बारह प्रकार हैं-१. अर्थदण्ड, २. अनर्थदण्ड, ३. हिंसादण्ड, ४. अकस्मात् दण्ड, ५. दृष्टि विपर्यास दण्ड, ६. मृषा प्रत्यय दण्ड, ७. अदत्तादान प्रत्यय दण्ड, ८. अध्यात्म प्रत्यय दण्ड, ९. मान प्रत्यय दण्ड, १०. मित्र दोष प्रत्यय दण्ड, ११. माया प्रत्यय दण्ड और १२. लोभ प्रत्यय दण्ड । धर्म क्रिया स्थान में धर्म हेतुक प्रवृत्ति का समावेश होता है । इस प्रकार बारह अधर्म क्रिया स्थान और एक धर्म क्रिया स्थान कुल तेरह क्रिया स्थानों का इस अध्ययन में निरूपण किया गया है ।
आहार परिज्ञा (आहार विचार) नामक तृतीय अध्ययन में समस्त त्रस और स्थावर प्राणियों के जन्म और आहार के संबंध में विवेचन किया गया है, लेकिन कहीं भी देव और नारकों के आहार की कोई चर्चा नहीं है । अध्ययन के अंत में संयमपूर्वक आहार प्राप्त करने पर भार दिया गया है ।
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