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इस प्रकार समवायांग और नंदी के निरूपण में यह समानता है कि महापुरुषों द्वारा सेवन की गई ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना को आचार कहते हैं और उस • आचार का प्रतिपादन करने वाला आगम आचारांग है। वैसे तो आचारांग के जिन वर्ण्य विषयों का ऊपर उल्लेख किया गया है, वे इतने व्यापक हैं कि शेष ग्यारह अंगों में भी यत्र तत्र उनकी चर्चा की गई है, लेकिन आचारांग में इन्हीं वषयों की चर्चा है और उसका प्रतिपादन विषय श्रमणाचार का सविस्तार वर्णन करना है । अतः आचारांग का यह नाम सार्थक है। क्या वर्तमान उपलब्ध आचारांग में भी उपर्युक्त विषयों का निरूपण किया गया है ? इसका स्पष्टीकरण यथास्थान आगे किया जा रहा है। * २. सूत्रकृतांग
दूसरे अंग आगम का नाम सूत्रकृतांग है । समवायांग सूत्र में इसके परिचय में बताया है कि इसमें स्वसमय, पर-समय (स्वमत, पर मत), जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष आदि तत्वों, नवदीक्षितों के लिए बोधवचन, क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी दृष्टियों की चर्चा की गई है । इसके अतिरिक्त तेईसवें समवाय में इसके तेईस अध्ययनों के विशेष नामों का उल्लेख भी है । श्रमणसूत्र में भी इसके तेईस अध्ययनों का निर्देश है कि प्रथम श्रुतस्कंध में सोलह और द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन है, लेकिन अध्ययनों के नाम नहीं दिए हैं।
नंदीसूत्र में इसके वर्ण्य विषय के लिए सूचित किया है कि सूत्र कृतांग में लोक, अलोक, लोकालोक, जीव-अजीव, जीवाजीव, स्वमत, परमत तथा क्रियावादी-अक्रियावादी आदि तीन सौ तिरसठ पाखण्डियों, अन्य धर्मावलम्बियों की चर्चा है । सूत्रकृतांग में परिमित वाचनाएँ हैं तथा संख्यात अनुयोग द्वार, संख्यात छद, संख्यात श्लोक आदि है।
राजवार्तिक के अनुसार सूत्रकृतांग में ज्ञान, विनय, कल्प्य, अकल्प्य, छेदोपस्थापना, व्यवहार धर्म एवं क्रियाओं का वर्णन है । धवला में भी राजवार्तिक गत उल्लेख का संकेत किया गया है, लेकिन स्वसमय, पर-समय का उल्लेख विशेष है। जयधवला में कहा है कि सूत्रकृतांग में स्वसमय, पर-समय, स्त्रीपरिणाम, क्लीबता, अस्पष्टता, मन की बातों की, कामावेश विभ्रम, आस्फालन सुख, स्त्री संसर्गज सुख, पुरुषेच्छा आदि चर्चा है । अंग पण्णति के अनुसार ज्ञान, विनय, निर्विघ्न अध्ययन, सर्व सत्क्रिया, प्रज्ञापना सुकथा, कल्प्य, व्यवहार, धर्म क्रिया, छेदोपस्थापना, यति, स्वसमय, पर-समय एवं क्रिया भेद का सूत्रकृतांग में निरूपण है । दिगंबर परंपरा में भी इसके तेईस अध्ययन बताए हैं । श्वेताम्बर टीका ग्रंथर और दिगंबर परंपरा के ग्रंथों में इन नामों में थोड़ा सा अन्तर अवश्य है, लेकिन वह नगण्य जैसा है।
१. प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी प्रभाचंद्रीय वृत्ति २. आवश्यक वृत्ति ६५१,६५८
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