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को मिलता है, लेकिन 'सार' शब्द का प्रयोग कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । हाँ, अध्ययन के अंत में शब्दातीत एवं बुद्धि तत्व से अगम्य आत्म तत्व का निरूपण है । यही निरूपण सार रूप है । इसीलिए संभवतः इसका लोकसार नाम रखा गया है ।
इसके छह उद्देशक हैं, जिनके वर्ण्य विषय क्रमशः इस प्रकार हैं
१. हिंसक, आरंभी और विषय लोलुपी मुनि नहीं हो सकता । २. अहिंसाहिंसादि पाप कार्यों से निवृत्त होने वाला ही श्रमण कहलाता है । ३. मुनि किसी प्रकार का परिग्रह न रखे और न काम भोगों की इच्छा करें । ४. आयु एवं विद्या की योग्यता से विहीन अगीतार्थ एवं सूत्रार्थ में निश्चय रहित साधु एकल विहारी होने से बहुत से दोषों का सेवन करता है । ५. जलाशय के दृष्टांत द्वारा मुनि को सदाचार की शिक्षा दी गई है । ६. आत्म साधक के लिए उन्मार्ग एवं राग द्वेष का त्याग करना चाहिए । इस प्रकार इसमें सामान्य श्रमणचर्या का प्रतिपादन किया गया है।
छठे अध्ययन का नाम धूत है । अध्ययन के प्रारंभ में ही 'अग्धाई से धूयं नाणं' इस वाक्य में धू-धूत शब्द का एवं आगे भी 'धूयं वायं पवे एस्सासि' में धूतवाद का उल्लेख होने से इस अध्ययन का धूत नाम सार्थक है। धूत का अर्थ होता है-धोना, झटकाना या दूर करना अथवा साफ करना । इस अध्ययन में आत्मा को मलिन बनाने वाले तृष्णा, मोह, लोभ आदि दोषों को झटककर आत्मा को साफ करने का उपदेश है । इसके पाँच उद्देशक हैं । उनमें से पहले में स्वजन संबंधियों को छोड़कर धर्म में प्रवृत्त होने का दूसरे में कर्मफल को आत्मा से दूर रखने का, तीसरे में मुनि को अल्प उपकरण रखने और यथासंभव कायक्लेश आदि करने का, चौथे में मुनि को सुखों में मूर्च्छित न होने का और पाँचवें में मुनि को संकटों से भयभीत न होने एवं प्रशंसा से प्रसन्न न होने का उपदेश दिया गया है । सारांश यह है कि आत्मार्थी को शयन, स्वजन, उपकरण, शरीर, इंद्रिय विषय, वैभव सत्कार आदि की तृष्णा को झटककर साफ कर देना चाहिए ।
सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा है । वर्तमान में यह अध्ययन तो अनुपलब्ध है, लेकिन इस पर लिखी नियुक्ति प्राप्त है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय यह अध्ययन उपलब्ध रहा होगा । निर्युक्तिकार ने इसके विषय का संकेत करते हुए बताया है कि साधक को परीषहों के सिरमौर और ब्रह्मचर्य के विघातक स्त्री परीषह एवं उपसर्ग को तथा इसी प्रकार के अन्य मोहजन्य परीषहों व उपसर्गों पर विजय प्राप्त करने एवं सहने में तत्पर रहना चाहिए। किसी भी स्थिति में इस प्रकार के मोहपाश में नहीं फँसना चाहिए ।
इस अध्ययन के विलुप्त होने का पण्डित बेचरदासजी के शब्दों में यह कारण
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