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इस वाचना के प्रमुख नागार्जुन सूरि थे और यह वल्लभी में हुई थी, अत: यह नागार्जुनीय वाचना या वल्लभी वाचना कहलायी। * वल्लभी वाचना (द्वितीय)
उपर्युक्त वाचनाओं के अनन्तर पुन: करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद वल्लभी में देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमण संघ एकत्र हुआ। इसका उद्देश्य भी जैन श्रुत की सुरक्षा का स्थायी प्रबंध करना था। अत: पूर्व की दोनों वाचनाओं के समय लिपिबद्ध शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य विद्यमान प्रकरण ग्रंथों को लिखा कर सुरक्षित करने का निश्चय किया गया एवं पूर्व में लिखे गये ग्रंथों में समन्वय करके, भेद-भाव व अन्तर को दूर करके एक रूप दिया गया तथा महत्वपूर्ण भेदों को पाठान्तर के रूप में संकलित किया गया। कई प्रकीर्णक ग्रंथों को यथारूप में प्रमाण माना गया। यह सब कार्य वीर निर्वाण संवत ९८० या ९९३ में सम्पन्न हुआ। अत: वर्तमान में उपलब्ध आगम ग्रंथों का लिखित रूप इसी समय में स्थिर हुआ था, ऐसा कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा।
इस समग्र स्थिति का अवलोकन करने से यह तो ज्ञात होता है कि देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण के प्रयास से आगमों की सुरक्षा के लिए लेखन कार्य हुआ, लेकिन इसकी सूचना नहीं मिलती है कि कितने ग्रंथ लिखे गये । नंदीसूत्र में दी गयी सूची को यदि पुस्तकाकार में परिणत आगमों की सूची माना जाये, तो यह कहना पड़ेगा कि कई आगम उक्त लेखन के बाद भी नष्ट हए हैं। विशेषतया प्रकीर्णक तो अनेक नष्ट हए हैं । केवलं वीरस्तव नामक प्रकीर्णक और पिंड नियुक्ति ऐसे दो ग्रंथ हैं, जिनका नंदीसूत्र में उल्लेख नहीं है, किन्तु वे आगम रूप में मान्य है।
इस वाचना के समय जो ग्रंथ लिखे गये, उनमें कुछ अंश प्रक्षिप्त हो सकता है, किन्तु कई अंश ऐसे भी हैं, जो मौलिक है । अतएव पूरे आगमों का एक काल तो नहीं, किन्तु सामन्यतया यह कहा जा सकता है कि पाटलिपुत्र वाचना उनके लेखन की भूमिका बनाने का काल है, जो आचार्य भद्रबाहु के समय में हुई थी और देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण के समय में अपने पूर्णरूप में फलित हुई। अन्वेषकों ने भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी का दूसरा दशक माना है । डॉ. जेकोबी छन्द आदि की दृष्टि से अध्ययन कर के इस निष्कर्ष पर आये कि आगम के प्राचीन अंश ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के अन्त से लेकर ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के प्रारंभ जितने प्राचीन है। इसलिए यह माना जा सकता है कि अंग आगमों का प्राचीन अंश ईसा पूर्व का है और आगमों में संग्रहित अंग बाह्य ग्रंथ गणधरों की रचना नहीं होने से, किन्तु भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा रचित होने से उनके लेखन का समय निर्धारण उनके रचयिता आचार्यों के समय से किया जा सकता है । जिन ग्रंथों के कर्ता का निश्चित समय व नाम ज्ञात
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