________________
महान लिपि शास्त्री श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा का यह निश्चित मत है कि लेखन के साधन- ताड़पत्र, भोज-पत्र, कागज, स्याही, लेखनी आदि का परिचय हमारे पूर्वजों को अति प्राचीन काल से था एवं अक्षरज्ञान में वे पूर्ण निष्णात थे। बौद्धिक प्रगल्भता तथा पांडित्य से वे ओतप्रोत थे और धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में वे लेखन का उपयोग करते थे। लेकिन धर्मशास्त्रों को अंकित करने की परंपरा उनके द्वारा नहीं अपनायी गयी, श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि की अपेक्षा से।
___ जिज्ञासु धर्मशास्त्रों को आदर एवं विनय पूर्वक अपने-अपने गुरुओं- आचार्यों से मौखिक प्राप्त करते थे और इस प्रकार से प्राप्त होने वाले शास्त्रों को कंठस्थ करते एवं उन पाठों की बार-बार परावर्तना करते हुए स्मृति में रखते । इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए शास्त्रों के लिए वर्तमान में प्रयुक्त श्रुति, स्मृति एवं श्रुत' शब्द पर्याप्त हैं। धर्मवाणी में कहीं पर भी अनुपयोगी काना, मात्रा, अनुस्वार, विसर्ग आदि का प्रवेश न हो जाये अथवा आवश्यक का अपमार्जन न हो जाये, इसकी भी वे पूरी सावधानी रखते थे। वर्तमान में उपलब्ध वेदों और अवेस्ता गाथाओं के पाठ इस बात के साक्षी है कि वेदों और अवेस्ता के विशुद्ध उच्चारणों की सुरक्षा का वैदिक पुरोहितों और अवेस्ता के पंडितों ने कितना ध्यान रखा है,। इसी कारण वे अपने मूल रूप को आज भी जैसा का तैसा सुरक्षित बनाये हुए हैं। .
जैन परंपरा ने भी अपने आगमों को सुरक्षित रखने का वैसा ही प्रयत्न किया और आवश्यक विधि विधानों, क्रिया कांडों के सूत्रों की अक्षर संख्या, पदसंख्या, ह्रस्व-दीर्घ अक्षर व उच्चारण के गुण दोषों आदि का (जिनका स्पष्ट विधान है।) अनुसरण करके गुरु पूर्व श्रुत परंपरा से प्राप्त संचित श्रुत संपत्ति को विशुद्ध रीति से अपने शिष्यों को सौंपते और वे शिष्य भी पुन: अपनी शिष्य परंपरा को वह श्रुत संपत्ति प्रदान करते थे। यह सब होने पर भी यदि आगमिक परंपरा धारा प्रवाह रूप में प्राप्त नहीं है, तो इसका कारण व्यवस्था की न्यूनता है। उसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। * आगम सुरक्षा में बाधाएँ
वेदों को श्रुत परंपरा के रूप में सुरक्षित रखना भारतीयों का अद्भुत कार्य है। आज भी वेदों का शुद्ध उच्चारण करने वाले वेदपाठी ब्राह्मण मिलेंगे, जो आदि से लेकर अन्त तक बिना पुस्तक के अपनी स्मृति से वेद पाठों का शुद्ध उच्चारण कर सकते हैं। भले ही वेद के अर्थ की परंपरा उन्हें अज्ञात हों, किन्तु पाठ की परंपरा तो अवश्य ही ज्ञात है। इसी प्रकार की प्रणाली जैन परंपरा में भी थी। कंठाग्र पूर्वक शास्त्रों को सुव्यवस्थित अविसंवादी रूप से स्मरण में रखने के लिए पुरोहितों की तरह
(१८)