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अध्याय ३
आगमों का रचनाकाल पूर्वोक्त संकेतों से यह स्पष्ट है कि आगम शब्द का वाच्य कोई एक ग्रंथ विशेष नहीं, अपितु केवली, श्रुतकेवली, पूर्वधर आदि श्रमण महापुरुषों द्वारा रचित अनेक ग्रंथों को आगम के रूप में मान्य किया गया है । अतएव आगमों की रचना कब हुई? इसके लिए यद्यपि समय की कोई एक निश्चित रेखा निर्धारित नहीं की जा सकती, फिर भी ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि भगवान महावीर ने विक्रम पूर्व ५०० में उपदेश देना प्रारंभ किया था। अत: सांप्रतिक उपलब्ध आगमों की उससे पहले रचना होना संभव नहीं है और वल्लभी में वि.सं. ५१० या मतान्तर से ५२३ में पुस्तक लेखन किया गया। अत: इसी काल मर्यादा को ध्यान में रखकर वार्तमानिक आगमों के रचनाकाल पर विचार किया जा सकता है कि प्रारंभ विक्रम पूर्व ५०० में भगवान महावीर की देशना है और अन्त वि.सं. ५१० या ५२३ है।
- आगमों के रचनाकाल के बारे में ऊपर जो संकेत किया गया है, उसमें स्थूल रूप से दो बातें ध्यान आकर्षित करती हैं। वे ये कि उपलब्ध आगमों का आदि स्रोत कौन है और उन्हें लिपि बद्ध करने का अंतिम समय क्या है । ऐतिहासिक दृष्टि से वाङ्मय का काल निर्धारित करते समय इन दो बातों पर भी विचार किया जाता है ।
जैन परंपरा को यह बात स्वीकार करने में कभी भी किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं रहा है कि जैन तीर्थंकरों की परंपरा प्रागैतिहासिक होने पर भी उपलब्ध समग्र जैन साहित्य का आदि स्रोत जैनागम रूप अंग साहित्य वेद जितना प्राचीन नहीं है, फिर भी भगवान महावीर और तथागत बुद्ध के समकालीन होने से उसे बौद्ध पिटको के समकालीन तो माना ही जा सकता है।
. लेकिन अनुसंधान कर्ताओं की दृष्टि से यह स्पष्ट हो जाता है कि आगमों में संकलित ऐसे कई तथ्य हैं, जिनका संबंध प्राचीन पूर्व परंपरा से है। ___अब यह प्रश्न होता है कि भगवान महावीर के समय में ही गणधरों ने आगमों को लिपिबद्ध क्यों नहीं किया? क्या उन्हें अक्षर और लिपिज्ञान नहीं था? उत्तरवर्तीकाल में ही आचार्यों द्वारा आगम लिपिबद्ध क्यों किये गये? और वैसा करने का क्या कारण रहा? इस सब प्रश्नों के उत्तर में यह कहना पर्याप्त है कि आगमों को उसी समय (भगवान महावीर के देशना काल में) लिपिबंद्ध न करने का कारण गणधरों आदि को अक्षर ज्ञान न होना नहीं था । उस युग में धारणा के अनुसार धर्मशास्त्रों के प्रति आदर और श्रद्धा व्यक्त करने के लिए कंठस्थ करने की पद्धति थी।