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उसमें क्रम से ५१ ग्रंथों का उल्लेख है और अन्त में जिस अंग का जो उपांग है, उसका उल्लेख किया है। साथ ही एक मतान्तर का भी उल्लेख किया है कि- अण्णे पुण चंद पण्णत्ति सूर पण्णत्तिं च भगवई उवंग भणंति । तेमि मएण उवासगदसाईणं पंचण्ह-मंगाणं उवंग निरयावलिया सुयक्खंधो।
आचार्य जिनप्रभ के समय तक वर्तमान काल प्रसिद्ध वर्गीकरण स्थिर हो चुका था। इसकी सूचना 'वायणाविही' की उत्थानिका से मिलती है। इस सूची में 'मूल ग्रंथ' ऐसा उल्लेख तो अवश्य है, किन्तु पृथक रूप से आवश्यक' और 'दशवैकालिक' का उल्लेख नहीं है । इसकी सूचना इससे मिलती है।
इन सब विभिन्न दृष्टिकोणों द्वारा यह तो प्रतीत हो जाता है कि अमुक ग्रंथ अंग और अमुक उपांग है, लेकिन आज जो उपांगों का वर्गीकरण श्वेतांबर परंपरा में प्रचलित है, वह कब और किसने किया, यह जानने का निश्चित साधन उपलब्ध नहीं
* स्थानकवासी परंपरा मान्य आगम
ऊपर उन ग्रंथों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें आगम कहा जाता है, लेकिन श्वेतांबर स्थानकवासी परंपरा में ग्यारह अंगों के अतिरिक्त अंगबाह्य आगमों में से बारह उपांग, चार छेदसूत्र, चार मूलसूत्र और एक आवश्यक इस प्रकार इक्कीस ग्रंथों को आगम के रूप में मान्य किया है। इसलिए इस परंपरा में ग्यारह अंग और इक्कीस अंगबाह्य ग्रंथ कुल बत्तीस आगम प्रमाण माने जाते हैं । स्थानकवासी परंपरा मान्य इक्कीस अंगबाह्य ग्रंथों के साथ-साथ और ग्रंथों को आगम मानने से श्वेतांबर मूर्तिपूजक परंपरा में पैंतालीस आगम माने गये हैं। उसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार
है
स्थानकवासी और मूर्तिपूजक परंपराओं में आगमों की संख्या भिन्नता के दो कारण हैं । पहला यह कि दस प्रकीर्णक ग्रंथ केवल श्वेतांबर मूर्तिपूजक परंपरा में माने गये हैं,स्थानकवासी में नहीं । तथा दूसरा यह कि छेद सूत्र के छह भेदों में से महानिशीथ
और जीतकल्प तथा मूल सूत्र के चार भेदों में से पिंडनियुक्ति, इन तीन को स्थानकवासी परंपरा में प्रमाणभूत नहीं माना है या इन्हें लुप्त माना गया है । इस प्रकार तेरह ग्रंथों की अल्पाधिकता के कारण दोनों परंपराओं के आगमों की संख्या भिन्न-भिन्न है।
इसे प्रकार आगमों के वर्गीकरण की प्रणाली जो वीर निर्वाण के अनन्तर जिस रूप में प्रवाहित होती हुई सांप्रत काल में प्रचलित है, उसे यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया है। अब आगे के प्रकरण में अंगप्रविष्ट एवं अंगाबाह्य आगमों के रचना काल पर दृष्टिपात करेंगे।
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