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घटती हुई परंपरा ६८३ वर्ष के बाद भी चलती रही, जिसे उत्तरवर्ती आचार्यों ने लिपिबद्ध किया ।
अब एक प्रश्न और रह जाता है कि भद्रबाहु स्वामी के जीवित रहते हुए भी ग्यारह अंगों को संकलित करने की जल्दी क्यों की गयी ? इसके उत्तर के लिए तत्कालीन स्थिति पर ध्यान देना होगा। एक तो यह कि द्वादशवर्षीय भयंकर दुर्भिक्ष के कारण श्रमण संघ विच्छिन्न हो गया था । कुछ श्रमण परिस्थिति को देख कर सुविधानुसार संकट को पार करने के लिए दक्षिण आदि की ओर चले गये थे और जो अवशिष्ट थे, वे भी दुर्भिक्ष के कारण काल कवलित हो गये और उसके कुछ सन्निकट थे ।
इस स्थिति में यह विचार आना स्वाभाविक था कि जब श्रमण संघ तितर-बितर हो गया है, अनेक विद्वान श्रमण काल के गाल में समा चुके हैं और भविष्य में न जाने किस संकट पूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ेगा । अत: श्रुति परंपरा से प्राप्त श्रुत को संकलित कर लिया जाये और इसके लिए जिसको जो-जो अंश ज्ञात था, उसे क्रमबद्ध व्यवस्थित बनाने का प्रयत्न किया गया। इस कार्य में सदाशयता अधिक है, न कि श्रुतकेवली की अवमानना या उपेक्षा की दृष्टि । अवमानना की कल्पना तो आग्रहशील व्यक्ति ही कर सकते हैं I
यदि विद्वान श्रमणों के द्वारा कृत आगमों के संकलन को 'मित्रस्य चक्षुषा' सभी साम्य है की दृष्टि से देखा जाये, तो इसका अभिनन्दन ही किया जाना चाहिये कि जब दुर्भिक्ष के कारण मगध में विद्यमान श्रमणवर्ग का जीवन संकट में था, कि जब किसको जीवन छोड़ देना पड़े और मगध के बाहर गये श्रमणों की क्या स्थिति है ? ऐसी स्थिति में आगमों के संकलन की तैयारी करना जरूरी था. और इसीलिए वह प्रयास किया भी गया । इसमें श्रुत केवली की उपेक्षा बताना और यह कहना कि इस प्रकार से संकलित किये गये अंगों को प्रमाण कैसे माना जा सकता है ? अपने आप में उपकारक के प्रति द्वेष बुद्धि का परिचय देता है ।
दूसरी बात यह है कि एक तरफ तो जब हम यह मानते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है ! क्या पता कब किसकी जीवन लीला समाप्त हो जाये ? उस स्थिति में इस संभावना को कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी को दुर्भिक्ष के बाद भी निश्चित रूप से जीवित रहना ही चाहिये और यह निर्णय तो वही कर सकता है, जिसकी मौत के साथ मित्रता हो । संभवत: ६८३ वर्ष तक ही अविच्छिन्न श्रुत परंपरा के चलने का निर्णय देने वाले ही ऐसा कह सकते हैं। दूसरा कोई ऐसी अतिश्योक्ति पूर्ण बात कहने की योग्यता नहीं रखता और फिर भी कहता है, तो इसे दुःसाहस ही मानना पड़ेगा । अत: श्वेतांबर परंपरा तो यही कहती है कि सामयिक परिस्थितियों के कारण अंगश्रुत जैसा का तैसा वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, बहुत सा अंश विच्छिन्न भी हुआ है और अवशिष्ट अंश लिपिबद्ध हो कर पवित्र निधि के रूप में सुरक्षित है ।
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