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* दिगंबर परंपरा में वर्गीकरण का रूप
श्वेतांबर परंपरा की तरह दिगंबर परंपरा में भी श्रत के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद माने गये हैं। इन भेदों के लिए भी श्वेतांबर परंपरा की तरह माना गया है कि साक्षात् तीर्थंकर का आचारांग आदि बारह प्रकार का ज्ञान अंग प्रविष्ट है और गणधर देव के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धि-बल वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रंथ अंगबाह्य है । धवला से सिद्ध होता है कि आगम के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ऐसे दो विभाग उस समय तक दिंगबर परंपरा में निर्धारित हो चुके थे। अंग प्रविष्ट आगमों के नाम व संख्या श्वेतांबर परंपरा के समान है और अंगबाह्य आगमों के कालिक और उत्कालिक ये दो भेद किये गये हैं। और फिर चौदह नाम बताये गये हैं - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तवं, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक और निषिद्धिका। किन्तु अंग ज्ञान की परंपरा वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष तक चली और उसके बाद वह आंशिक रूप से चलकर अन्त में विच्छिन्न हो गयी, ऐसी दिगंबर परंपरा की मान्यता है।
जैन साहित्य का इतिहास – ‘पर्व पीठिका' के लेखक पंडित श्री कैलाशचंद्र जी शास्त्री ने अंगपरंपरा के विच्छेद के संबंध में निम्नलिखित दृष्टिकोण प्रस्तुत किये
___ तदनुसार दिगंबर परंपरा में वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पर्यन्त अंगज्ञान की परंपरा प्रवर्तित रही है।'
.... क्योंकि महावीर निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यन्त ही दिगंबरों में अंगज्ञानियों की परंपरा चालू रही । उसके पश्चात् उस परंपरा का विच्छेद हो गया। यद्यपि परंपरा से होने वाले आचार्यों में अंगज्ञान उत्तरोत्तर घटता गया, तथापि आंशिक ज्ञान की परंपरा ६८३ वर्ष पर्यन्त अविच्छिन्न चलती रही । (पृष्ठ ५३४)। .
.... इसी परिपाटी के अनुसार द्वादशांग श्रुत अविकल रूप से अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को प्राप्त हुआ। दिगंबर मान्यता के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास दक्षिण में हुआ और उनका उत्तराधिकार उनके शिष्य गोवर्धनाचार्य को प्राप्त हुआ। यद्यपि सकल श्रुतज्ञान विच्छेद तो श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ ही हो
१.धवला पुस्तक १ पृष्ठ ९६ २. तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/२० ३. धवला पुस्तक १ पृष्ठ ९६,
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