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अध्याय २
• आगमों का वर्गीकरण पूर्व में दो बातें स्पष्ट की गई हैं कि तीर्थंकर की वीतरागता एवं सर्वार्थ साक्षात्कारिता के कारण आगम प्रमाण है एवं अर्थ रूप आगम के कर्ता तीर्थंकर एवं शब्द रूप के कर्ता गणधर हैं । समवायांग आदि आगमों से यह मालूम होता है कि भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया, उसकी संकलना, गणधरों द्वारा द्वादशांगों-आचरारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती), ज्ञाता धर्म कथा, उपासक दशा, अन्तकृत, दशा, अनुत्तरोववाइ, प्रश्न व्याकरण, विपाक सूत्र और दृष्टिवाद में हुई और वे गणिं पिटक इसलिए हैं कि गणि के लिए श्रुत के भण्डार हैं।
. इस प्रकार साक्षात् तीर्थंकर के उपदेश का संकलन तो एक निश्चित संख्या के ग्रंथों से हुआ, लेकिन जैन परंपरा के अनुसार केवल द्वादशांगी ही आगमान्तर्गत नहीं है। उनके अतिरिक्त अन्य शास्त्र भी आगम रूप में मान्य है, जो गणधरों द्वारा संकलित नहीं है। गणधर तो केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अतः समय प्रवाह के साथ आगमों की संख्या बढ़ती गई। + आगमों की संख्या वृद्धि का कारण .. . जैन अनुश्रूति के अनुसार तीर्थंकर के समान अन्य प्रत्येक बुद्ध कथित आगम भी प्रमाण है, क्योंकि वे जो भी उपदेश देते हैं, उसमें और तीर्थंकर के उपदेश में कोई अन्तर नहीं होता । अतः प्रत्येक बुद्ध महापुरुषों ने जो भी उपदेश दिया, उसे भी आगम में समाविष्ट कर लेना स्वाभाविक था। इसी प्रकार गणिपिटक के आधार पर मन्दबुद्धि शिष्यों को समझाने के लिए श्रतकेवली आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथ आगमों के साथ अविरोधी तथा आत्मार्थ की ही पुष्टि करने वाले होते हैं, अतः उन्हें भी आगम मान लिया गया। क्योंकि सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी-श्रुतकेवली (चतुर्दश पूर्वी) गणधर प्रणीत सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनागम के सूत्र और अर्थ के विषय में निष्णात होते हैं । अतएव उनकी योग्यता एवं क्षमता की उपेक्षा नहीं हो सकती । वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे. उसका जिनागम के साथ कुछ भी विरोध नहीं हो सकता। जिनोक्त विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के अनुकूल ग्रंथ रचना करना ही उनका १ दुवालसारे गणिपिडगे। - समवायांग १ और १३६