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तप, नियम, ज्ञान रूप वृक्ष पर आरुढ़ होकर अनन्त ज्ञानी केवली भगवान भव्य जनों के प्रतिबोधार्थ ज्ञान कुसुम की वृष्टि करते हैं, जिन्हें गणधर अपने बुद्धि पट में झेलकर प्रवचन माला गूँथते हैं । '
पूर्वोक्त कथन का सारांश यह हुआ कि जैसे अमुक दृष्टि से वेद नित्य है, अविनाशी हैं, अनन्त है, अपौरुषेय है, वैसे ही जैनागम भी अमुक अपेक्षा से नित्य है, अनादि है, अनन्त है एवं अपौरुषेय है । लेकिन इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि शास्त्र वचन अथवा ज्ञान स्वतंत्र स्वयंभू नहीं है, किन्तु वक्ता की वचन रूप क्रिया के साथ संबद्ध है । लेखक या वक्ता यदि निःस्पृह है, करुणा पूर्ण है, सभी प्राणियों को आत्मवत् समझने वाला है और आध्यात्मिक क्लेशों से दूर है, तो तत्प्रणीत शास्त्र, वचन भी सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक हितकर होता है, किन्तु उससे विपरीत लक्षण वाले व्यक्ति के वचन प्रमाण नहीं माने जा सकते। अतएव शास्त्र, वचन अथवा ज्ञान का प्रामाण्य तदाधारभूत पुरुष पर अवलंबित है । जो शास्त्र या वचन अनादि अपौरुषेय माने जाते हैं, उनके प्रामाण्य की कसौटी भी यही है ।
* सांप्रतिक आगमों का उपदेष्टा
इस प्रकार आगमों के पौरुषेयत्व - अपौरुषेयत्व, सादित्व, अनादित्व का समन्वय होने के साथ प्रामाण्यं अप्रामाण्य की गुत्थी सहज में सुलझ जाती है। लेकिन इसी प्रसंग में एक दूसरा प्रश्न होता है कि पौरुषेय होने पर भी जब आगम प्रमाण भूत है, तो वर्तमान में उपलब्ध आगमों के उपदेष्टा कौन हैं ? संक्षेप में इसका उत्तर है कि भगवान महावीर इनके उपदेष्टा हैं। यद्यपि महावीर से पूर्व भगवान ऋषभदेव आदि भगवान पार्श्वनाथ पर्यन्त तेईस तीर्थंकर और हो चुके हैं । उनमें से कुछ पौराणिक, प्रागैतिहासिक हैं और कुंछ ऐतिहासिक भी हैं, लेकिन जैन परंपरा की यह मान्यता है कि तीर्थंकरं भले ही अनेक हो, किन्तु तत्काल में जो भी अंतिम तीर्थंकर होता है, उसी का उपदेश और शासन आचार विचार के लिए समाज को मान्य होता है । इस दृष्टि से भगवान महावीर के अंतिम तीर्थंकर होने से उन्हीं का उपदेश अंतिम उपदेश है और वहीं प्रमाणभूत हैं। शेष तीर्थंकरों का उपदेश उपलब्ध भी नहीं है और यदि वह हो भी तब भी वह भगवान महावीर के उपदेश में गर्भित हो गया है, ऐसा मानना चाहिए। क्योंकि भगवान महावीर ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि उनके उपदेश का
१. तव नियम णाण रुक्खं आरुढ़ो केवली अमियनाणी
तो मुना वुट्ठि भविय जण विबोहणट्ठाए ॥
तं बुद्धिमण पडेण गणहरा गिण्हिउं निरवसेसं
तित्थयर भासियाइं गंथंति तओ पवयणट्ठा। आवश्यक निर्युक्ति ८९, ९०
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