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नंदीसूत्र ४१ आदि ।
एकमात्र प्रयोजन होता है । अतः संघ ने उनके ग्रंथों को भी आगम के अंतर्गत मान
लिया ।
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इसके बाद कालक्रम से वीर निर्वाण के १७० और मतान्तर से १६२ वर्षों बाद जब श्रुतकेवली का अभाव हो गया और केवल दस पूर्व ज्ञाता आचार्य ही रह गए, तब उनकी विशेष योग्यता को ध्यान में रखकर जैन संघ ने दस पूर्वधर ग्रंथित ग्रंथों को भी आगमन में समाविष्ट कर लिया। इसके लिए भी कारण यही था कि उनके द्वारा ग्रंथित ग्रंथ आगमों के आशय की पुष्टि करने वाले हैं और उनका आगमों से विरोध इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि वे निश्चित रूप से सम्यग्दृष्टि होते हैं । इसकी सूचना निम्नलिखित गाथा से भी मिलती है
सुत्तं गणहर कथिदं, तहेव पत्तेयबुद्ध कथिदं च ।
सुदं केवलिणा कथिदं, अभिण्ण दस पुव्व कथिदंच' ॥
उक्त कथन से यह संकेत मिलता है कि आगम कोटि में किसी भी ग्रंथ. को ग्रहण करने का मानदण्ड क्या है ? अतएव जब दस पूर्वधरों की परंपरा विच्छिन्न हो गई और उनके द्वारा रचित ग्रंथों तक को आगम मानकर संख्या सीमित कर ली जाती, तब भी एक बात थी । लेकिन उस काले के बाद भी कुछ ऐसे प्रकीर्णक ग्रंथ हैं जो आगमों की तरह मान्य हैं । उसका कारण यही था कि तत्कालीन प्रभावक आचार्यों द्वारा रचित ये ग्रंथ भी वैराग्य भाव में वृद्धि कराने में विशेष उपयोगी, सक्षम और समर्थ होने के साथ-साथ निर्दोष भी थे ।
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इस प्रकार समय प्रवाह से जब जैनागम की संख्या बढ़ने लगी, तब उनका वर्गीकरण करना आवश्यक हो गया। भगवान महावीर के मौलिक उपदेशों का संग्रह गणधर कृत द्वादशांगों में था ही। उसमें तो किसी प्रकार का परिवर्तन, परिवर्धन या संशोधन किया जाना न तो शक्य था और न ही वैसा करना किसी को अभीष्ट था । अतएव सोचा गया कि भगवान महावीर का संकलित उपदेश स्वयं अपने मूल रूप में एक वर्ग बना रहे और उससे अन्य का पार्थक्य भी सिद्ध हो जाए, जिससे सामान्य से सामान्य जन यह जान ले कि साक्षात् आगम कौन-सा है एवं पश्चाद्वर्ती आगमन कौन-सा है।
१. मूलाचार५/८० । यही गाथा जयधवला में उद्धृत है । पृष्ठ १५३ । इसी भाव को व्यक्त करने वाली गाथा संस्कृत में द्रोणाचार्य ने ओघं नियुक्ति की टीका में उद्धृत की है । पृष्ठ ३ ।
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