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उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेर-फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहूँगा।
पं. कैलाशचन्द्रजी स्व-सम्पादित 'भगवतीआराधना' की प्रस्तावना में लिखते हैं“विजयोदया के अध्ययन से प्रकट होता है कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित था,उसमें और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है । अनेक गाथाओं में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं
इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने जब, इस यापनीय ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा। यदि पं. कैलाशचन्द्रजी ने उन सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता तो सम्भवतः हम अधिक प्रामाणिकता से कुछ बात कह सकते थे। टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी
अभी तक खोज नहीं पाये हैं । अतः अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष करेंगे। स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की छेड़-छाड़ हुई थी। इस सन्दर्भ में पं. नाथूरामजी प्रेमी लिखते हैं- इसमें तो संदेह नहीं है कि इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है परन्तु यह कितना है यह निर्णय करना कठिन है । बहुत कुछ सोच-विचार के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति । मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थी, इसलिए उन्होंने गोपगिरि(ग्वालियर)के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश पढ़ा नहीं गया था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया
और जहाँ-जहाँ जोड़ा, वहाँ-वहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ दिया। इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया।
इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हई है। जहाँ 'तिलोयपण्णत्ति' का ग्रन्थ-परिमाण ८००० श्लोक बताया गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण ९३४० है अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं । पं. नाथूरामजी प्रेमी के शब्दों में- ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट की गयी है। इस सन्दर्भ में पं. फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन साहित्य भास्कर भाग ११, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकार का विचार" नामक लेख के आधार पर लिखते हैं- “उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त है, बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया है, जो मूल ग्रन्थकर्ता के अनुकूल नहीं है।” इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल गाथाएँ १८० थीं, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं- अर्थात् उसमें ५३ गाथाएं परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं । यही स्थिति कुन्दकुन्द के समयसार वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है। समयसार के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथाएँ मिलती हैं- अर्थात् उसमें ५३ गाथाएँ परवर्ती
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