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भूमिका
( PREFACE ) जैनधर्म का साहित्य बहुत विशाल है। इसमें न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्द, इतिहास, पुराण,दर्शन, गणित, ज्योति आदि सर्वही विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। तथा प्रचलित संस्कृत प्राकृत तथा हिन्दी के शब्दों से विलक्षण लाखों पारिभाषिक शब्द हैं जिनको अर्थ समझने के लिये सैंकड़ों जैन ग्रन्थों के पढ़ने की आवश्यकता है। उन सर्व शब्दों को अकारादि के क्रम से कोषरूप में संग्रह करने की और अनेक ग्रन्थों में प्रसारित एक शब्द सम्बन्धी शान को एकत्र करने की बहुत बड़ी ज़रूरत थी। इस वृहद् कोष में इसही बात की पूर्ति की गई है। इससे जैन और अजैन सभीको यह एक बड़ा सुभीता होगा कि किसी भी स्थल पर जब कोई पारिभाषिक शब्द आवेगा वे उसी समय इस कोष को देख कर उसका पूर्ण अर्थ मालूम कर सकेंगे। यह गून्थ आगामी सन्तानों के लिये सहस्रों वर्षों तक उपयोगी सिद्ध होगा। गून्यकर्ता ने अपने जीवन का बहुत सा अमूल्य समय इस कार्य में व्यय करके अपने समय को सच्चे परोपकार के अर्थ सफल किया है। इन के इस महत्वपूर्ण कार्य का ऋण कोई चुका नहीं सकता।
जितना गम्भीर जैन साहित्य है उतना प्रयास इसके प्रचार का इसके अनुया. यियों ने इस काल में अब तक नहीं किया है इसी से इसके शानरूपीरत्न गुप्त ही पड़े हुए हैं। वास्तव में जैन साहित्य एक सर्वोपयोगी अमौलिक रत्न है।
____एक बड़ा भारी महत्व इस साहित्य में यह है कि इसमें एक पदार्थ के भिन्न भिन्न स्वभावों को भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से वर्णन किया गया है जिसको समझ लेने से जो मत! ऐसे हैं कि जिन्होंने पदार्थ का एक ही स्वभाव माना है दूसरा नहीं माना व किसी ने दूसरे स्वभाव को मान कर पहिले के माने हुये स्वभाव को नहीं माना है और इस लिये इन दोनों मतोंमें परस्पर विरोध है वह विरोध जैन सिद्धान्त के अनेकान्तवाद से बिल्कुल मिट जाता है।
और सर्व मतों के अन्तरङ्ग रहस्य को समझने की सची कुंजी हाथ में आजाती है। इसी को 'स्यावाद नय' या 'अनेकान्त मत' कहते हैं-इस जैन दर्शन के परमागम का यह स्याद्वाद बीज है। कहा है--
परमागमस्य बीजं निषिद्ध जन्मांध सिंधुर विधानं । सकल नय विलसितानां विरोध मथनं नमाम्यनेकान्तं ॥
भावार्थ-मैं उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूं जो परमागम का बीज है। और जिसने अन्धों के हाथी के एक अंश को पूर्ण हाथी मानने के भ्रम को दूर कर दिया है, अर्थात् जो सर्व अंश रूप पदार्थ है उसके एक अंश को पूर्ण पदार्थ मानने की भूल को मिटा दिया
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