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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैसे आणंदमुनि और आणंदरुचि तथा पं० लाखो आदि कई रचनाकारों ने उसकी प्रशंसा की है। उदयसमुद्र आदि कई कवियों ने औरंगजेब के मुसलमान सूबेदारों की भी प्रशंसा की है। तात्पर्य यह कि जैनसाधु और श्रावकों का शासकों से संबंध प्रायः अच्छा रहा। इसलिए शासन की तरफ से वे उतने पीड़ित या प्रताड़ित नहीं हुए जितने हिन्दू हुए थे। उस समय हिन्दू धर्म खतरे में था। यह खतरा इस्लाम और ईसाइयों की तरफ से दोतरफा था। औरंगजेब ने जुल्म के साथ प्रलोभन का भी सहारा लिया। उस समय एक कहावत प्रसिद्ध थी 'मुसलमान हो जावो, कानूनगो बन जावो' । विधर्मी बनने पर सबसे बड़ा पद जो प्राप्त हो सकता था वह कानूनगो का था और इसके लिए न जाने कितने पढ़े-लिखे लोग इस्लाम धर्म स्वीकार करने लगे थे। हिन्दू धर्म उपेक्षित दलित था किन्तु इस्लाम धर्म के प्रति भी जनसाधारण में आस्था नहीं थी। इसी समय संसार के अत्यन्त शक्तिशाली ईसाई धर्म का हमारे देश में आगमन हुआ। इनलोगों ने धर्मप्रचार के लिए तलवार का नहीं बल्कि तराजू और तरकीब का सहारा लिया। हिन्दू मुसलमानों को लड़ाया, अस्पताल, स्कूल खोले, मिशन खोले, गाँव-गाँव में वे प्रचार में जुट गए और नाना हथकण्डों को अपनाकर ईसाई बनाना शुरू किया। हिन्दू-मुसलमान और ईसाइयों की लड़ाई से तटस्थ रहकर जैन साधकों ने अपना धर्मप्रचार और जीव कल्याणकारी कार्य चालू रखा तथा उसमें सफल हुए। __ जैन प्रबन्ध काव्यों में तत्कालीन धार्मिक अवनति का उल्लेख भी मिलता है पर अधिकांश रचनाओं में दार्शनिक, गंभीर चिन्तन और जिनभक्ति भावना का उन्मेष प्रकट हुआ है। आनंदघन, यशोविजय, जिनहर्ष आदि महाकवियों की रचनाओं से ऐसे पुष्कल उदाहरण दिए जा सकते हैं। जबकि अन्य धर्म एक दूसरे के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने में जुटे थे, इन लोगों ने धर्म के प्रति आस्था, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रयत्न किया। धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता का शमन किया, तत्कालीन भोगविलास और शृंगारी मनोवृत्ति का प्रत्याख्यान किया। जनमानस में धर्म के सच्चे स्वरूप की स्थापना तथा समाज से ऊँचनीच और छूआछूत के भेदभाव को कम करके आत्मा की अमरता और समता का संदेश दिया। इनके स्याद्वाद् और सप्तभंगी नय ने इन्हें ऐकांतिक कट्टरता से मुक्त रखा। इसलिए इन लोगों ने धर्म और समाज में सम्यक्त्व की स्थापना में आदर्श
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