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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास और शेष मन्दिर के बीच दीवार खड़ी कर दी जाय । मन्दिर सेठ को सौंप दिया जाय और मन्दिर की सामग्री वापस कर दी जाय' । यह उल्लेख इसलिए किया गया ताकि स्पष्ट हो सके कि जैन साधु और श्रावक-श्रेष्ठि राजदरबारों में अच्छा प्रभाव रखते थे। अकबर के समय हीरविजय, जिनचंद्र सूरि और विजयसेन आदि प्रभावक आचार्यों की चर्चा पूर्व खण्ड में की जा चुकी है। जहाँगीर की मां और पत्नी दोनों हिन्दू थीं। वह अधिक उदार और अपने पिता की धार्मिक नीति का अनुयायी था। मुगल सम्राट की तरफ से हीरविजय के स्तूप के लिए २२ बीघा और विजयसेन के स्तूप के लिए १० बीघा जमीन श्रीसंघ को दान में मिला था। जैन साधुओं और श्रावकों ने मुगल बादशाहों के दरबार में पहुँचकर उन्हें प्रभावित किया और उनसे जीवकल्याणकारी आदेश प्राप्त किए। आचार्य जिनचंद्रसूरि ने जहाँगीर से ऐसे आदेश रद्द भी करवाये थे जिन्हें उसने नशे की मदहोशी में जारी किया था । जैनसाधु स्वयं अपरिग्रही, अहिंसक और आचारवान् थे जिससे शासक प्रभावित होते थे। जहाँगीर ने जैनसाधुओं से शिक्षा ली थी और अपने पुत्र की शिक्षा के लिए भानुचंद्र को गुजरात से मांडू बुलाकर नियुक्त किया था। अकबर, जहाँगीर देश के सभी धर्मों का ध्यान रखते थे जिनमें हिन्दू और मुसलमान धर्म तो प्रमुख थे ही, पर इसके बाद जैन धर्म का ही स्थान था क्योंकि मुगल सम्राट् किसी बौद्ध विद्वान् या साधु के सत्संग और शिक्षा से प्रभावित नहीं हुए थे पर जैन साधु और सेठ-श्रावकों के संपर्क में लगातार आते रहे। विजयदेव सूरि को जहाँगीर अपना सच्चामित्र मानता था साथ ही उनसे कल्याण की कामना भी करता था। मुगल सम्राटों के अलावा देशी रजवाड़ों, सामंतों, नवाबों को भी जैन साधु और सेठ प्रभावित करते थे। जगडू, वस्तुपाल-तेजपाल, भामाशाह, शेठ शांतिदास आदि इस क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। उदयपुर के राणा जगत सिंह, स्वयं महाराणा प्रताप आदि भी जैनसाधुओं और श्रावकों के सम्पर्क से प्रभावित थे। इस प्रकार तत्कालीन समाज में जैन धर्म की स्थिति अच्छी थी। जैन कवियों ने औरंगजेब या आलमगीर का भी अच्छे शब्दों में यत्र-तत्र उल्लेख किया है। पता नहीं काव्यरचना में शाहेवक्त के उल्लेख की रूढ़ि का पालन करने मात्र के लिए ऐसा किया गया है अथवा वस्तुतः वे लोग उसे अच्छा समझते थे । जो भी हो, जैन कवियों १ मेंडलस्लो-ट्रैवेल्स इन बेस्टर्न इण्डिया, पृ० १०१-१०२ ।
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