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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् ईतिहास स्वयं गद्दी हथिया ली। सं. १७७० से ७७ तक सात वर्ष यह सैयद बन्धुओं से पीछा छुड़ाने के प्रयत्नों में ही लगा रहा और अन्ततः सैयद बन्धुओं ने मराठों की सहायता से फर्रुखसियर को कैद कर लिया और उसके स्थान पर शाहजहाँ द्वितीय को गद्दी पर बैठाया । पर इसकी तीन चार महीने में ही यक्ष्मा से मृत्यु हो गई और इसके बाद मुहम्मदशाह 'रंगीले' गद्दी पर बैठा | यह अयोग्य शासक था। शासन प्रबन्ध सैयद बन्धुओं के हाथ में था। इसके समय में साम्राज्य के विघटन की गति तीव्रतर हो गई। बंगाल, अवध, मालवा, गुजरात, बुन्देलखण्ड, पंजाब प्रान्त अलग हो गये, जाटों, राजपूतों, मराठों ने स्वतन्त्र होना शुरू कर दिया। इसी बीच नादिरशाह का आक्रमण हो गया। सं. १७९६ में करनाल के मैदान में डेढ़ लाख सेना के साथ वह लड़ने गया किन्तु बुरी तरह पराजित हो गया। २० करोड़ हरजाना देकर दिल्ली बचाने का प्रयास किया, किन्तु दिल्ली लटी गई और कत्लेआम हआ। पूरा दरी बाजार लाल खन से रंग गया। डेढ़ लाख लोग मारे गये, मुगल सम्राट का राजचिह्न छीन लिया गया। कोहनूर सहित अपार सम्पदा तथा सैकड़ों कलाकारों और बंधुआ बेगार लोगों को साथ लेकर वह वापस लौट गया। इस आक्रमण का देश और साम्राज्य पर भयंकर कुप्रभाव पड़ा । मुगलशक्ति का पूर्ण पतन हो गया। इसी बीच अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण और लूटपाट तथा मराठों के युद्ध तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बढ़ते प्रभाव ने भी मुगल साम्राज्य की कब्र खोदने में मदद की। प्लासी के युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी एक साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उदित हुई । इस प्रकार १८वीं (विक्रम) शती मुगल साम्राज्य के चरम उत्कर्ष बिन्दु से पतित होकर विनाश के गर्त तक जाने की कहानी अपने भीतर समेटे हुए है जिसका परिचय हमें तत्कालीन जैन साहित्य में साहित्यिक आवरण के बीच दिखाई पड़ता है। साथ ही इस राजनीतिक परिस्थिति का जो प्रभाव समाज और संस्कृति पर पड़ा उसका तो भरपूर वर्णन तत्कालीन ग्रंथों में प्राप्त होता ही है।
सामाजिक पीठिका--
तत्कालीन समाज पर सामंती व्यवस्था का शिकंजा जकड़ा हुआ था। सारे देश में सामंतों, नवाबों, राजाओं का आतंक छाया हुआ था। प्रजा भातंकित थी, शोषित और अशिक्षित थी। एक तरफ
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