________________
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दरबारी शान-शौकत, समृद्धि और विलासिता थी, दूसरी ओर साधारण जनता दुर्दशाग्रस्त, विपत्तिग्रस्त और भूखी-नंगी थी। सामन्तों, अमीरों के अन्तःपुरों में तीन-चार रानियों, रक्षिताओं, रखैलों और नर्तकियों की भीड़ थी; विलास की सभी सामग्री एकत्र थी पर कृषक, कामगार को भरपेट भोजन मुहाल था। उनकी अवस्था गुलामों से अच्छी नहीं थी। बीच में एक तीसरा मध्यवर्ग भी अत्यन्त दबा सिकुड़ा था जिसमें साहूकार, व्यापारी, अहलकार, कर्मचारी आदि थे जो मितव्ययी और सादा जीवन यापन करने के लिए बाध्य थे। बड़े लोग शाही बारातों, उत्सवों में धूमधाम करते, मदिरापान करते, जश्न मनाते थे और बेचारी साधारण जनता इनका जय-जयकार करती भूखी सोने के लिए विवश थी। स्त्रियों की दशा और शोचनीय थी। बलात्कार पुरुष का अधिकार था। वह पिता, पति और पुत्र के खूटे में बँधी गाय की तरह बेसहारा थी । सम्पत्ति पर उसका कोई हक नहीं था, शिक्षा से वह पूर्णतया वंचित थी। ढोंगी, पाखण्डी, साधु-फकीर भी उनका शीलभंग करते थे। एक बार पतिता घोषित होने पर आजीवन वेश्या जीवन बिताने की बेवसी उन्हें झेलनी पड़ती थी। तत्कालीन समाज तत्कालीन मुगल साम्राज्य की तरह पतनशील, ह्रासोन्मुख और दयनीय था।
धार्मिक स्थिति--
राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का धर्म पर प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। जब राजसत्ता और समाज पतनोन्मुख था तो धर्म उससे अछूता नहीं रह सकता था। सम्राट् शाहजहाँ अपनी प्रारम्भिक कट्टरता को नीतिवश कम करके अपने व्यवहार में थोड़ा सहिष्णु हो गया था। मेंडलस्लो, जो शाहजहाँ के समय भारत यात्रा पर आया था, लिखता है कि जब वह अहमदाबाद पहुँचा तो वहाँ के हाकिम सूबेदार औरंगजेब ने मुगल दरबार के खास जौहरी शांतिदास द्वारा निर्मित श्री चिन्तामणि-पार्श्वनाथ जैन मन्दिर को तुड़वा दिया था और उसका नाम कुवल उल-इस्लाम रख दिया था । सेठ शांतिदास ने जब शाहजहाँ से फरियाद की तो उसने फरमान भेजा कि मस्जिद
१. श्री सत्यकेतु विद्यालंकार---भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास,
पृ० ५५०-५१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .