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६ हे प्रभो ! तेरापंथ
साधु अपने लिए बनाये स्थानकों में रहते हैं, अपने लिए खरीदे हुए उपकरणों का प्रयोग करते हैं, विवेक-रहित, अबोध व्यक्तियों को माता-पिता की बिना अनुमति बलात् या प्रलोभन देकर दीक्षा देते हैं । मर्यादाओं का उल्लंघन कर वस्त्र, पात्र, उपकरण रखते हैं और इन दोषपूर्ण क्रियाओं का शुद्धाचार स्थापित करने में संकोच नहीं करते । भिक्षु स्वामी को लगा कि संसार को निस्सार समझकर छोड़ने पर भी, उन्हें शुद्ध शील चर्चा नहीं मिली और इस प्रकार उनके मानस में तत्कालीन शिथिलाचार के प्रति असन्तोष की रेखाएँ उभरने लगीं पर उनका निश्चित आकार लेना अभी शेष था और उसके लिए अभी अवसर नहीं आया था ।
अपने अध्ययन के फलस्वरूप, शिथिलाचार के प्रति असंतोष की निष्पत्ति होने के उपरान्त भी, आचार्य रुघनाथजी महाराज के प्रति वे पूर्ण विनयनिष्ठ व सेवाभावी बने रहे, वे आत्मजिज्ञासा की तृप्ति के लिए, अपने आचार्य महाराज को आचार-विचार के संबंध में अत्यन्त शिष्टतापूर्वक प्रश्न पूछते पर आचार्यजी या तो प्रश्नों का उत्तर नहीं देते या टालमटोल कर जाते । वे आचार्य रुघनाथजी के प्रिय शिष्यों में थे, उनकी उत्कट वैराग्य भावना व मेधा से आचार्यजी उन से आंतरिक स्नेह रखते थे व पूरे समाज में उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था । यह बात प्रायः प्रकट थी कि उस धर्मसंघ के भावी आचार्य भिक्षु स्वामी होंगे । गुरु-शिष्य का यह आत्मीय भाव वर्षों तक चलता रहा, न शिष्य की जिज्ञासावृत्ति ने आचार्यजी के मन में अविश्वास पैदा किया, न आचार्य की उपेक्षावृत्ति ने शिष्य के मन में अविनय भाव की सृष्टि की।
बोधि-लाभ
दीक्षा का सातवां वर्ष बीतते एक ऐसी घटना घटी, जिसने भिक्षु स्वामी के जीवन में एक महान् परिवर्तन ला दिया। मेवाड़ में विशाल रामसमन्द झील के किनारे 'राजनगर' नाम का एक ऐतिहासिक शहर है । उस समय वहाँ जैन धर्मावलम्बियों की घनी बस्ती थी, जहाँ स्थानकवासी परम्परा के आचार्य रुघनाथ जीव उनके गुरुभाई आचार्य जयमलजी के सम्प्रदाय के अनेक श्रावक रहते थे और उनमें कई तत्त्वज्ञ व आगम रहस्य को समझने वाले थे। संवत् १८१४ में आचार्य जयमलजी के शिष्य थिरपालजी, फतेचंदजी, बख्तमलजी, भारमलजी ने राजनगर में चातुर्मास किया, वहां श्रावकों से चर्चा करने के बाद उन्हें प्रतीत हुआ कि उनके साध्वाचार व मान्यताओं में दोष है और उन्होंने आगमोक्त आधार पर मान्यताओं की पुनर्स्थापना करते हुए कहा, नवतत्त्व की जानकारी बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती, सम्यक्त्व के बिना श्रावकत्व व साधुत्व नहीं होता, केवली की आज्ञा के बाहर धर्म नहीं होता, व्रत में धर्म और व्रत में अधर्म होता है एवं मोह अनुकम्पा या सावध अनुकम्पा में पाप होता है ।"
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