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४ हे प्रभो ! तेरापंथ
उसे स्वीकार करना है, तो इसकी क्या चिंता? दोनों ने इस प्रकार त्याग-तपस्या के कई वर्षों तक सतत प्रयोग किये, पर संयोग की बात, जब ये प्रयोग चल रहे थे कि भिक्षु की पत्नी रोगग्रस्त हो गई व रोग की भंयकर वेदना में ही उनका अकस्मात देहान्त हो गया। इस घटना ने भिक्षु को जीवन की नश्वरता का तीव्र बोध करा दिया, और वे तत्काल २५ वर्ष की भर यौवन आयु में सारी सुखसुविधाओं को छोड़ आचार्यश्री रुघनाथजी महाराज के पास जैन दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। उनके पिता का देहान्त पहले ही हो चुका था, माता अपने स्वप्न के अनुसार पुत्र के राजा होने की आकांक्षा पाल रही थी, अतः जब उसके द्वारा अनुमति देने का प्रश्न आया तो उसने अनुमति देने से इनकार कर दिया। आचार्य रुघनाथजी महाराज को जब इसकी जानकारी मिली व दीपांबाई ने अपने स्वप्न की बात बताई, तो उन्होंने भिक्षु के बारे में भविष्यवाणी करते हुए कहा, "बहन ! तुम्हारा पुत्र बहुत होनहार है, यह अभय और असंग रहकर सिंह की तरह गूंजेगा, बड़े-बड़े सामन्त और श्रीमन्त इसकी चरणरज लेने व अर्चना करने को लालायित रहेंगे, यह निश्चित ही इतिहास-पुरुष होगा। यह चारित्रात्माओं का शिखर, त्यागी पुरुषों का मुकुटमणि, तत्त्ववेत्ताओं का अधिराज व अखण्ड आत्म-ज्योति का अक्षय पात्र होगा।' आचार्यजी से समाधान प्राप्त कर माता ने दीक्षा की अनुमति दी व संवत् १८०८ के मिगसर वदि १२ को बगड़ी गाँव में, नदी किनारे, विशाल वट वृक्ष के नीचे, श्री भिक्षु प्रवजित हुए व गुरु ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि “उनकी शिष्य सम्पदा, ज्ञान साधना व यश का विस्तार वट वृक्ष की शाखाओं की तरह फैले।" वह वट वृक्ष आज भी मौजूद है व श्री भिक्षु के संसारत्याग की गाथा सुना रहा है । श्री भिक्षु अब भिक्षु स्वामी बन गये। व्यक्तित्व
भिक्षु स्वामी का वर्ण श्याम, कद दीर्घ व लंबा, देह विशाल, निर्मल एवं स्वस्थ थी। उनका ललाट प्रशस्त, चेहरा हँसमुख, मुखाकृति दीप्तिमय, आकृति ओजस्वी एवं आकर्षक थी। उनके नेत्रों में रक्तिम आभा के साथ सहज दयाभाव था, जिससे अमृत झरता था। उनकी चाल हस्ती की तरह मस्त व गति तीव्र थी। उनकी वाणी में ओज व मधुर चुम्बकीय प्रभाव था। शब्दों में आषाढ के मेघ कीसी गर्जना व सिंहनाद का बोध होता था। वे स्थितप्रज्ञ थे, उनकी बुद्धि शुद्ध एवं स्थिर होने के साथ कुशाग्र, उर्वरा व प्रत्युत्पन्न मति धारण किए हुए थी। उनके शरीर पर अनेक शुभ लक्षण थे, उनके दाहिने पैर में ऊर्ध्व रेखा का चिह्न, दाहिने
१, आचार्य भिक्षु : व्यक्तित्व एवं कृतित्व-श्रीचन्द रामपुरिया, पृ० १६
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