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तेरापंथ का उदयकाल ३
- सत्य की खोज में एक बाद एक सम्प्रदाय को टटोलते रहे व सत्य उपलब्ध न होने पर उसे छोड़ते रहे ।
गृहस्थ जीवन
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frent विवाह बड़ी गांव के चकलोट बास में रहने वाले बांठिया परिवार की लड़की सुगुणी बाई से हुआ, जो बहुत ही सरल, सुविनीत, संस्कारी व सुन्दर महिला थी । भिक्षु के एक लड़की भी हुई, जिसका विवाह बाद में नीमावास गाँव बाफणा परिवार में हुआ । भिक्षु में प्रारम्भ से ही अभय और असंगता की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी और उन्हें दम्भ व ढोंग बिलकुल पसन्द नहीं था। उनकी प्रकृति पारदर्शी स्फटिक की तरह निश्छल, निष्कलंक व निर्मल थी और इसी प्रकृति के कारण उन्होंने न केवल अपने जीवन को विशुद्ध क्रान्ति का प्रतीक बनाया, बल्कि समूचे लोक-जीवन में उन्होंने ज्योति जागृत की व युगों-युगों के लिए वे क्रान्तिद्रष्टा बन गए। गृहस्थ जीवन में उनके बहुविध गुण सम्पन्न व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली अनेक घटनाएं हुईं, जिनमें उनकी प्रकृति व वृत्तियों का तलस्पर्शी परिचय मिलता है । 'मजने पर सन्देह, ' 'आरण के कंडे की तम्बाकू', 'गाली भरे गीत', 'लोटे की घिसाई', 'कंटक, विनोद', 'थाली के दो टुकड़े' आदि गृहस्थ जीवन के अनेक प्रसंगों का विस्तृत उल्लेख 'तेरापंथ का इतिहास' (लेखक मुनिश्री बुद्धमलजी) एवं 'शासन समुद्र, भाग १' (लेखक मुनिश्री नवरत्नमलजी) में हुआ है ।
.वैराग्य भावना और दीक्षा
गृहस्थ जीवन में आबद्ध होने पर भी भिक्षु की आन्तरिक वृत्तियां बड़ी वैराग्यपूर्ण थीं । श्रीमद् जयाचार्य ने लिखा है, “भिक्षु ने परभवतणी रे लाल, चिता अधिकी चित्त ।" संयोग से उनकी धर्मपत्नी बड़ी सुशील, विवेकी एवं धर्मपरायण थी । पति-पत्नी का ऐसा मणिकांचन योग उनके जीवन में वैराग्य की अभिवृद्धि करने वाला सिद्ध हुआ । विवाह के दो-तीन वर्ष बाद ही पति-पत्नी दोनों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया और वे सांसारिक कार्यों से निवृत्त होने व संयम साधना में प्रवृत्त होने की तैयारी करने लगे । संयम के मार्ग में होने वाले कष्टों का साक्षात अनुभव करने के लिए उन्होंने तांबे के लोटे में कैरों का धोवण पानी डालकर व उसे दिन की धूप में केलू की छत पर हांड़ी में रख कर उस खारे, निस्सार गर्म पानी को पीना आरम्भ किया। यह एक दुष्कर कार्य था पर भिक्षु ने सोचा कि आत्मलक्षी संयम साधना तो अत्यंत दुष्कर है और जब
१. आचार्य भिक्षु : व्यक्तित्व व कृतित्व - श्रीचंद रामपुरिया, पृ० १०
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